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तृतीये आख्यातापाये तृतीयो द्विर्वचनपादः
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सूत्र है - "कुहोश्चुः" (अ० ७ । ४ । ६२) । पाणिनि ने उ- अनुबन्ध से वर्ग का बोध कराया है, जबकि कातन्त्र - ( ते वर्गाः पञ्च पञ्च पञ्च - १1१1१० ) के अतिरिक्त ऋक्प्रातिशाख्य ( १/८ ), तैत्तिरीयप्रातिशाख्य (१।१०) तथा वाजसनेयिप्रातिशाख्य (१ । ६४ ) में भी यह वर्गसंज्ञा की गई है। टीकाकार के अनुसार 'कगडां चजञा : ' यह सूत्र बनाना चाहिए, क्योंकि 'ख-घ' वर्गों के स्थान में 'क-ग' आदेश उपरिवर्ती "द्वितीयचतुर्थयोः प्रथमतृतीयौ " ( ३।३।११) होकर फिर उनके च-ज आदेश प्रकृत सूत्र से है । इस प्रकार सूत्रकार द्वारा जो वर्ग ग्रहण किया गया है, वह वैचित्र्यार्थ ही कहा जा सकता है ।
[विशेष वचन ]
१. द्वितीयचतुर्थयोः प्रथमतृतीयाविति ( खघयोः कगौ), 'क-ग-डां च-जञाः' इति कृते सिध्यति, वर्गग्रहणं वैचित्र्यार्थम् (दु० टी० ) ।
२. हेमकरस्यापि खघयोर्न प्रयोजनमिति, एतेन वर्गग्रहणबलाल्लाक्षणिकस्यापि भवतीत्यभिप्रायः (बि० टी०) ।
[रूपसिद्धि]
१. चकार । कृ + परोक्षा - अट् । 'डुकृञ् करणे' (७।७) धातु से परोक्षासंज्ञक परस्मैपद-प्रथमपुरुष एकवचन अट् प्रत्यय, द्विर्वचन, अभ्याससंज्ञा, “ऋवर्णस्याकारः” (३।३।१६ ) से अभ्याससंज्ञक ऋ को अ, प्रकृत सूत्र से ककार को चकार तथा “अस्योपधाया दीर्घो वृद्धिर्नामिनामिनिचट्सु " ( ३ । ६ । ५) से ऋ को वृद्धि र् ।
२. चखान । खन् + परोक्षा - अट् । 'खनु अवदारणे' (१।५८४) धातु से परोक्षासंज्ञक अट् प्रत्यय, द्विर्वचनादि, प्रकृत सूत्र से खू को छू, " द्वितीयचतुर्थयोः प्रथमतृतीयौ” (३ | ३ | ११ ) से छू को च्, तथा " अस्योपधाया० " ( ३।६।५) से उपधादीर्घ ।
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३. जगाम । गम् + परोक्षा - अट् । 'गम्लृ गतौ ' (१ । २७९) धातु से परोक्षासंज्ञक अट् प्रत्यय, द्विर्वचनादि, प्रकृत सूत्र द्वारा गकार को जकार तथा उपधादीर्घ ।
४. जघास | अद् - घस् + परोक्षा अट् । 'अद भक्षणे' (२1१) धातु से परोक्षासंज्ञक अट् प्रत्यय, " वा परोक्षायाम्" ( ३।४।८०) से अधातु को घस्लृ आदेश, ॡ अनुबन्ध का प्रयोगाभाव, द्विर्वचनादि, प्रकृत सूत्र से घ् को झ्,
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