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तृतीये आख्याताध्याये तृतीयो द्विर्वचनपादः
यस्तु चेक्रीयितलुगन्तं भाषायामिच्छति, स आह- पंफुलीत्यत्र " अभ्यस्तस्य चोपधायाः " ( ३ । ५।८) इति गुणो न भवति । 'चंचूर्यते' इति सूत्रे दीर्घो विधीयते इति ।। ५३० |
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[समीक्षा]
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'चंचूर्यते, पंफुल्यते' इत्यादि चेक्रीयितप्रत्ययान्त शब्दों के साधनार्थ अभ्यासान्त में अनुस्वार की तथा 'चर् - फल्' धातुओं की उपधा में वर्तमान अकार के स्थान में उकारादेश की अपेक्षा होती है । इसका समाधान कातन्त्रकार ने एक ही सूत्र में दोनों कार्यों का निर्देश करके प्रस्तुत किया है, जबकि पाणिनि के नुगागम तथा उकारादेश का निर्देश पृथक् पृथक् सूत्रों में दृष्ट है - "चरफलोश्च, उत्परस्यातः” (अ० ७।४।८७, ८८ ) । इस प्रकार पाणिनि के नुगागम - अनुस्वारादेश तथा सूत्रद्वयनिर्देश गौरव के ही बोधक हैं, परन्तु इनकी अपेक्षा अनुस्वारागम एवं एक ही सूत्र में दो कार्यों का उपादान लाघवाधायक ही कहा जाएगा ।
[विशेष वचन ]
१ . परग्रहणमभ्यासनिवृत्त्यर्थम् । चरिफलिभ्यां येन विधिस्तदन्तस्येति निवृत्त्यर्थम् (दु० टी० ) ।
२. तपरकरणं सुखप्रतिपत्त्यर्थम् ( बि० टी० ) ।
३. यस्तु चेक्रीयितलुगन्तं भाषायामिच्छति (बि० टी० ) । [रूपसिद्धि]
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१. चंचूर्यते । चर् + य + ते । गर्हितं चरति । 'चर गत्यर्थः ' (१।१८९) धातु से क्रियासमभिहार अर्थ में " धातोर्यशब्दश्चेक्रीयितं क्रियासमभिहारे " ( ३।२।१४) से चेक्रीयितसंज्ञक 'य' प्रत्यय, द्विर्वचनादि, प्रकृत सूत्र से अभ्यासान्त में अनुस्वारागम, धातुस्थ अकार को उकार, "नामिनो र्वोरुपधाया दीर्घ इकः " ( ३ | ८ | १४) से उकार को दीर्घ, "ते धातवः " ( ३।२।१६ ) से 'चंचूर्य' की धातुसंज्ञा तथा विभक्तिकार्य ।
२. चंचुरिता । चंचूर्य + श्वस्तनी - ता । चेक्रीयितप्रत्ययान्त 'चर गत्यर्थः’ (१।१८९) धातु से श्वस्तनीसंज्ञक प्रथमपुरुष एकवचन ता - प्रत्यय, इडागम, अकार-यकारलोप |
३. पंफुल्यते । फल् + य + वर्तमाना ते । पुनः पुनरतिशयेन वा फलति । 'फल निष्पत्ती' (१।१८६ ) धातु से क्रियासमभिहार अर्थ में चेक्रीयितसंज्ञक यप्रत्यय, द्विर्वचनादि, अभ्यासान्त में अकार को अनुस्वारागम, 'पंफुल्य' की धातुसंज्ञा तथा विभक्तिकार्य ।