________________
तृतीये पाख्याताध्याये तृतीयो बिक्वनपादः [समीक्षा
'ईप्सति' शब्द के साधनार्थ धातुघटित आकार को ईकारादेशअभ्यासलोप की आवश्यकता होती है । एतदर्थ दोनों ही आचार्यों ने सूत्र बनाए हैं । पाणिनि का सूत्र है - "आपज्ञप्यधामीत्" (अ०७।४।५५) । पाणिनि ने 'आप' धातु के अतिरिक्त भी 'ज्ञप्-ऋध्' इन दो धातुओं का पाठ किया है, परन्तु कातन्त्रकार ने केवल 'आप' धातु को ही ईकारादेशविधानार्थ स्वीकार किया है। इसलिए वृत्तिकार दुर्गसिंह ने एक वार्तिक वचन पढ़ा है - "ऋधिज्ञप्योरीरीतौ वक्तव्यौ सनि सकारादौ" | इसमें ऋध धातु में ईर तथा ज्ञप धातु में ईत् आदेश निर्दिष्ट है । इस प्रकार कातन्त्रकार के 'ई-ईर् - ईत्' तीन आदेश पाणिनीय ईत् आदेश की अपेक्षा अधिक सार्थक हैं ।
[विशेष वचन] १. तिपा निर्देशः सुखार्थ एव (दु० टी०)। २. ईरो दीर्घोच्चारणं प्रक्रियागौरवनिरासार्थम् । ईदिति तपरः सुखार्थ एव
ऋधेरभिधानमाश्रयणीयम् (दु० टी०)। ३. ईदिति तकारः सुखनिर्देशार्थ एव (वि० प०)। ४. ज्ञपेश्च प्रच्छ ज्ञीप्सायाम् इति गणकारवचनादित्यर्थः (वि०प०; दु० टी०)। [रूपसिद्धि]
१.ईप्सति |आप् + सन् + अन्+ति |आप्तुमिच्छति । आप्ल व्याप्तौ'(४।१४) धातु से इच्छा अर्थ में "धातोर्वा तुमन्तादिच्छतिनैककर्तृकात्"(३।२।४) से सन् प्रत्यय, "चणपरोक्षाचेक्रीयितसनन्तेषु" (३।३।७) से द्विर्वचन, "पूर्वोऽभ्यासः" (३।३।४) से पूर्ववर्ती आप की अभ्याससंज्ञा, धातुघटित आकार को ईकार तथा अभ्यासलोप, 'ईप्स' की धातु संज्ञा तथा विभक्तिकार्य ।।५३७।
५३८. दन्भेरिच्च [३।३।४१] [सूत्रार्थ]
सकारादि सन् प्रत्यय के परे रहते दन्भधातुघटित स्वर को इत्- ईत् आदेश तथा अभ्यासलोप उपपन्न होता है ।। ५३८।
[दु० वृ०]
दन्भेः स्वरस्य इद् भवति चकारादीच्च सनि परेऽभ्यासलोपश्च । धिप्सति, धीप्सति । सनि सकारादाविति किम् ? दिदम्भिषति । मुचोऽकर्मकस्योद् वा वक्तव्यः । मोक्षते वत्सः स्वयमेव, मुमुक्षते वत्सः स्वयमेव, आनुकूल्यात् कर्मकर्तृत्वम् ।। ५३८।