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तृतीये आख्याताध्याये तृतीयो द्विर्वचनपादः
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[समीक्षा]
'जंजप्यते, जंजभ्यते' इत्यादि चेक्रीयितान्त प्रयोगों के साधनार्थ अभ्यासान्त में अनुस्वार की अपेक्षा होती है । इसकी पूर्ति कातन्त्रकार ने अनुस्वारागम से तथा पाणिनि ने नुगागम से की है । पाणिनि ने वाञ्छित छह धातुओं का सूत्र में स्पष्टतया नामोल्लेख किया है, जबकि कातन्त्रकार ने जपादिगण स्वीकार किया है। इस प्रकार पाणिनि ने नुगागम - अनुस्वार तथा छह धातुओं का पृथक्त्वेन पाठ करके गौरव को प्रदर्शित किया है, परन्तु कातन्त्रकार ने अनुस्वार एवं जपादिगण का निर्देश करके लाघव को अपनाया है । पाणिनि का एतद्विषयक सूत्र है - "जपजभदहदशभञ्जपशां च" (अ० ७ । ४ । ८६) ।
[ विशेष वचन ]
१. पशिरयमगणनिर्दिष्टोऽपि, अत एव गणवचनाद् धातुरवसीयते ( दु० टी०, वि० प० बि० टी० ) |
२. पूर्वैर्गणकारैर्गणेऽयं न पठितः, आधुनिकैस्तु जपादिपाठाद् गणे लिखित इति भावः (बि० टी० ) ।
३. धातवश्च द्विधा - गणपठिताः, अगणपठिताश्च (बि० टी० ) ।
[ रूपसिद्धि]
१. जंजप्यते । जप् + य + ते । गर्हितं जपति । 'जप मानसे च' (१।१३१ ) धातु से गर्हा अर्थ में चेक्रीयितसंज्ञक 'य' प्रत्यय, द्विर्वचनादि, अभ्यासान्त में अनुस्वारागम, धातुसंज्ञा तथा विभक्तिकार्य |
२. जंजपिता । जप् + य + श्वस्तनी - ता । 'जंजप्य' इस चेक्रीयित प्रत्ययान्त धातु से श्वस्तनीसंज्ञक 'ता' प्रत्यय, इडागम, "अस्य च " ( ३ | ६ |४९) से अकारलोप तथा ‘“यस्याननि" (३।६।४८) से यलोप |
३. जंजभ्यते । जभ् + य + वर्तमाना - ते । 'जभ गात्रविनामे' (१।३९३) धातु से क्रियासमभिहार अर्थ में चेक्रीयितसंज्ञक 'य' प्रत्यय, द्विर्वचनादि, अभ्यासान्त में अनुस्वारागम, ‘जंजभ्य' की " ते धातवः " ( ३।२।१६ ) से धातुसंज्ञा तथा विभक्तिकार्य ।
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४. जंजभिता । जंजभ्य + इट् + श्वस्तनी - ता । चेक्रीयितप्रत्ययान्त 'जंजभ्य' धातु से श्वस्तनीसंज्ञक 'ता' प्रत्यय, इडागम, “ अस्य च लोपः” (३।६।४९) से अकारलोप तथा ‘“यस्याननि" (३ । ६ । ४८) से यकारलोप ।। ५२९ ।