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तृतीये आख्याताध्याये तृतीयो द्विर्वचनपादः
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[समीक्षा]
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'बिभर्त्ति, जिहीते, मिमीते' इत्यादि 'भृञ् हाङ् माङ्' इन तीन धातुओं के शब्दरूपों की सिद्धि के लिए अभ्यास में इकारादेश की आवश्यकता होती है । इसी की पूर्ति कातन्त्रकार ने सूत्र में तीनों धातुओं का पाठ करके की है । पाणिनि ने पूर्ववर्ती (अ० ७।४।७५) सूत्र में जिस प्रकार 'निजाम्' पद पढ़कर उससे तीन धातुओं का ग्रहण किया है, उसी प्रकार प्रकृत " भृञामित्" (अ० ७ / ४ /७६) सूत्र में 'भृञाम्' पद से तीन धातुओं का बोध कराया है । कातन्त्रीय व्याख्याकार इस प्रकार के निर्देश को प्रतिपत्तिगौरवाधायक मानते हैं । अतः उनकी दृष्टि में आचार्य शर्ववर्मा का सूत्रपाठ समीचीन है। तीनों धातुओं के अनुबन्ध स्पष्टार्थक
हैं
[विशेष वचन ]
१. हाङिति ङकारोपादानाद् 'ओ हाकू त्यागे' (२।७१) इत्यस्य न भवति ( दु० टी०, बि० टी० ) ।
२. भृञ्माङोस्त्वनुबन्धो विस्पष्टार्थ एव भवति (दु० टी०, बि० टी० ) । [रूपसिद्धि]
१ . बिभर्त्ति । भृ + अन्लुक् + वर्तमाना - ति । 'डु भृञ् धारणपोषणयोः' (२।८५) धातु से वर्तमानासंज्ञक परस्मैपद - प्रथमपुरुष - एकवचन ति-प्रत्यय, " अन् विकरणः कर्तरि” (३।२।३२) से अन् विकरण, “अदादेर्लुग् विकरणस्य" (३ | ४ | ९२ ) से उसका लुक्, द्वित्व, अभ्याससंज्ञा, "ऋवर्णस्याकारः" (३।३।१६ ) से अभ्याससंज्ञक ऋकार को अकार, "द्वितीयचतुर्थयोः प्रथमतृतीयौ" ( ३।३।११) से भकार को बकार, प्रकृत सूत्र से अकार को इकार तथा "नाम्यन्तयो० " ( ३।५।१) इत्यादि से मूलभूत धातुगत ऋ को गुणादेश ।
२. बिभृयात् । भृ + अन्लुक् + सप्तमी - यात् । "सप्तम्यां च " ( ३।५।२३) से अगुण तथा अन्य प्रक्रिया पूर्ववत् ।
३. जिही। हा + अनूलुक् + ते । 'ओ हाङ् गतौ' (२।८७) धातु से वर्तमानासंज्ञक आत्मनेपद - प्रथमपुरुष एकवचन 'ते' प्रत्यय, अन् का लुक्, द्वित्व, अभ्याससंज्ञा, ह्रस्व, हकार को जकार, प्रकृत सूत्र से इत्त्व तथा " उभयेषामीकारो व्यञ्जनादावदः' (३।४।४४ ) से मूलभूत धातुगत आकार को ईकारादेश |
४. अजिहीत । हा + अनूलुक् + ह्यस्तनी - त । 'ओ हाङ् गतौ' (२ । ८७) धातु से ह्यस्तनीसंज्ञक त-प्रत्यय, अडागम तथा अन्य प्रक्रिया पूर्ववत् ।