________________
३३८
कातन्त्रव्याकरणम्
का लुक् ही किया है- “अदादेलुगु विकरणस्य" (३।४।९२) । शप् के 'लुक् -श्लु' विधायक पाणिनीय सूत्र इस प्रकार हैं- "अदिप्रभृतिभ्यः शपः, जुहोत्यादिभ्यः श्लुः" (अ०२।४।७२, ७५) । इस प्रकार पाणिनि ने जुहोत्यादिगण की धातुओं में श्ल करने के कारण ही "श्लौ" (अ०६।१।१०) सूत्र द्वारा श्लु के पर में रहने पर द्वित्वविधान का निर्देश किया है। तदनुसार कातन्त्रकार को "जुहोत्यादीनामनुलुकि" - यह सूत्र बनाना चाहिए था, परन्तु टीकाकार ने इस प्रकार सूत्र बनाने पर प्रतिपत्तिगौरव की बात कहकर सूत्रकार का समर्थन किया है - 'अनुलुकीति न कृतम्, प्रतिपत्तिगौरवात्' ।
[विशेष वचन]
१. 'चिक्लिद-चक्नस-चराचर-चलाचल-पतापत-वदावद-घनाघन- पाटुपटा वा' इति नामभूताः संज्ञा रूढाः (दु० वृ०)।
२. अदाधन्तर्गणो जुहोत्यादिः (दु० टी०, वि० प०)। ३. तिब्ग्रहणं सुखप्रतिपत्त्यर्थम् (दु० टी०; बि० टी०)। ४. अन्लुकीति न कृतम्, प्रतिपत्तिगौरवात् (दु० टी०)। ५. केचित् 'पाटुपटः' इत्यादौ दीर्घत्वं नेच्छन्ति (दु० टी०)। ६. जजनानीति बहूदाहरणं केचिद् वदन्ति छन्दस्येवेति (बि० टी०)। [रूपसिद्धि]
१. जुहोति । हु+ अनुलुक्+ति । 'हु दाने' (२।६७) धातु से वर्तमानासंज्ञक प्रथमपुरुष - एकवचन ति-प्रत्यय, “अन् विकरणः कर्तरि" (३।२।३२) से अन्-विकरण, “अदादेलुंग विकरणस्य" (३।४।९२) से उसका लुक्, प्रकृत सूत्र द्वारा 'हु' को द्विर्वचन, अभ्याससंज्ञा, “हो जः" (३।३।१२) से हकार को जकारादेश तथा "नाम्यन्तयोर्गुणः" (३।५।१) से उ को गुण ।
२. अजुहोत् । अट् + हु + अन्लुक्+दि । 'हु दाने' (२।६७) धातु से ह्यस्तनीसंज्ञक परस्मैपद - प्रथमपुरुष - एकवचन 'दि' प्रत्यय, अडागम, अन्विकरण, उसका लुक्, प्रकृत सूत्र द्वारा ‘हु' धातु को द्विर्वचन, अभ्याससंज्ञा, गुण, दि-प्रत्ययगत इकार का लोप तथा द् को त् आदेश ।
३. जुहवानि । हु + आनि । 'हु दाने' (२।६७) धातु से पञ्चमीसंज्ञक आनि प्रत्यय, अन् विकरण का लुक्, प्रकृत सूत्र द्वारा द्विर्वचन, अभ्याससंज्ञा, गुण तथा अवादेश।