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तृतीये आख्याताध्याये द्वितीयः प्रत्ययपादः
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श्ना । “क्र्यादिभ्यः श्ना" (अ० ३।१।८१) । अदादिगण में शप् का लुक्, जुहोत्यादिगण में श्लु तथा चुरादि णिच् प्रत्ययान्त की धातुसंज्ञा उपपन्न होती है, अतः ‘प्रकृतिप्रत्ययमध्यपतितत्वं विकरणत्वम्' के अनुसार उक्त ७ विकरण पाणिनीय व्याकरण में उपलब्ध होते हैं । कातन्त्रकार के विकरण ससूत्र इस प्रकार हैं - १. अन् । “ अन् विकरणः कर्तरि" (३ । २ । ३२) । २. यन् । “दिवादेर्यन्” (३ ।२।३३)। ३. नुः । “नुः ष्वादेः” (३।२।३४) । ४. न | "स्वराद् रुधादेः परो नशब्दः " (३।२।३६)। ५. उ । “तनोदरुः " ( ३।२।३७ )। ६. ना । “ना क्र्यादेः " (३ । २।३८) । इस प्रकार कातन्त्र में केवल छह ही विकरण हैं, क्योंकि 'अन्' विकरण ‘भ्वादि-तुदादि’ दोनों ही गणों में प्रवृत्त होता है । विकरणों की योजना कातन्त्रटीकाकार दुर्गसिंह के अनुसार पूर्वाचार्यों द्वारा प्रसिद्ध की गई थी – “अनि च विकरणे, शानुबन्धे शनीति न विदध्यात्, विकरणस्य पूर्वाचार्यप्रसिद्धत्वात्” (कात० वृ० टी० ३।२।३२)।
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[रूपसिद्धि]
१. भवति । भू + अन् + ति । 'भू सत्तायाम् ' (१1१ ) धातु से वर्तमानासंज्ञक प्रथमपुरुष – एकवचन 'ति' प्रत्यय, प्रकृत सूत्र द्वारा अन् विकरण, न् अनुबन्ध का प्रयोगाभाव, “अनि च विकरणे" ( ३ । ५ । ३) से भू-गत ऊकार को गुण ओकार तथा ‘“ओ अव्” (१।२।१४ ) से ओ को अवादेश |
२ . भवन् । भू + शन्तृङ् + सि । 'भू सत्तायाम्' (१।१) धातु से वर्तमान अर्थ में ‘“वर्तमाने शन्तृङानशावप्रथमैकाधिकरणामन्त्रितयोः” (४।४।२) से शन्तृङ् प्रत्यय, श् - ऋ - ङ् अनुबन्धों का प्रयोगाभाव, (भू + अन्त्), प्रकृत सूत्र से ' अन् ' विकरण, न् - अनुबन्ध का प्रयोगाभाव (भू + अ + अन्त्), "अकारे लोपम्” (२।१।१७) से अन् के अकार का लोप, " अनि च विकरणे" (३।५।३) से गुण, " ओ अव्” (१।२।१४ ) से ओ को अवादेश, 'भवन्त्' की लिङ्गसंज्ञा, सिप्रत्यय तथा सितू का लोप ।। ४८२ ।
४८३. दिवादेर्यन् [ ३।२।३३]
[ सूत्रार्थ ]
कर्ता अर्थ में विहित सार्वधातुकसंज्ञक प्रत्यय के परे रहते दिवादिगणपठित धातुओं से यन् प्रत्यय होता है तथा उसकी विकरणसंज्ञा भी प्रवृत्त होती है ।। ४८३ ।