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तृतीये आख्याताध्याये द्वितीयः प्रत्ययपादः [दु० वृ०]
तनादेर्गणाद् उर्विकरणसंज्ञकः परो भवति कर्तरि विहिते सार्वधातुके परे । तनोति, सनोति।।४८७।
[दु० टी०] तनादेः । 'तनु विस्तारे, पणु दाने' (७।१,२) उभयपदिनौ ।।४८७। [क० च०]
तनादेः । पूर्वसूत्रदत्तयुक्त्या स्वरादितीह न वर्तते, करोतेरिति निर्देशाच्च रुरिति नाशक्यते ।।४८७।
[समीक्षा]
'तनु विस्तारे' (७।१) आदि धातुओं से 'तनोति' आदि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ पाणिनि तथा कातन्त्रकार दोनों ने ही 'उ' विकरण का विधान किया है। पाणिनि का सूत्र है - "तनादिकृञ्भ्य उः" (अ० ३।१।७९) । पाणिनि ने इस सूत्र में 'कृञ्' का जो उपादान किया है, उससे 'अकृत, अकृथाः' आदि में "तनादिभ्यस्तथासोः" (अ० २।४।७९) से सिच्प्रत्यय का वैकल्पिक लुक् नहीं होता।
[रूपसिद्धि]
१. तनोति । तन् + उ +ति । 'तनु विस्तारे' (७।१) धातु से वर्तमानासंज्ञक प्रथमपुरुष – एकवचन ति - प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से उ - विकरण तथा "नाम्यन्तयोर्धातुविकरणयोर्गुणः” (३।५।१) से उ को गुणादेश-ओ।
२. सनोति। सन् + उ + ति । 'षणु दाने' (७।२) धातु से वर्तमानासंज्ञक प्रथमपुरुष - एकवचन ति-प्रत्यय “धात्वादेः षः सः" (३।८।२४) से मूर्धन्य षकार को दन्त्य सकार, 'निमित्तापाये नैमित्तिकस्याप्यपायः' (कात० परि० २७) के अनुसार णकार की निवृत्ति, प्रकृत सूत्र से उ-विकरण तथा उसके स्थान में गुण आदेशओ।।४८७।
४८८. ना ज़्यादेः [३।२।३८] [सूत्रार्थ
कर्ता - अर्थ में विहित सार्वधातकसंज्ञक प्रत्यय के परे रहते क्यादिगणपठित धातुओं से पर में विकरणसंज्ञक ना - प्रत्यय होता है ||४८८।