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कातन्त्रव्याकरणम् का विधान अनावश्यक ही कहा जा सकता है | जबकि कातन्त्रकार ने ऐसा न करके स्वतन्त्र रूप में आवश्यकतानुसार अण् आदि प्रत्ययों का विधान किया है |
[विशेष वचन] १. व्यवस्थितवाधिकाराल्लिपादीनामात्मनेपदे वा (दु० वृ०)।
२. वृत्करणमेकराश्यपेक्षया रधादिसमाप्त्यर्थं मुहादिसमाप्त्यर्थे सति न वेडागमः (दु० टी०)।
३. वस्तुतस्तु आम्नायादेव सर्वविप्रतिपत्तिनिरासः। सिचेरिदनुबन्धोऽनर्थको निष्फलत्वादिति सारसमुच्चयः । तद्बलाद् इदनुबन्धाद् वेति परस्मैपदे विकल्पसिद्धिरित्यन्ये (क० च०)
[रूपसिद्धि]
१. अपास्थत । अप + अस् + अण् + त । 'अप' उपसर्गपूर्वक 'अस्' धातु से अद्यतनीविभक्तिसंज्ञक त-प्रत्यय, अडागम, प्रकृत सूत्र द्वारा अण् प्रत्यय, ण् अनुबन्ध का प्रयोगाभाव, “अवर्णस्याकारः" (३।८।१८) से अकार को आकार तथा "अस्यतेस्थोऽन्तः' (३।६।९५) से थ् का आगम ।
२. अवोचत । अट+ब्रू- वच् + अण+दि । 'ब्रूचे व्यक्तायां वाचि' (२।६६) धातु से अद्यतनीविभक्तिसंज्ञक दि-प्रत्यय, अडागम, "ब्रुवो वचिः" (३।४।८८) से वच् आदेश, प्रकृत सूत्र द्वारा अण् प्रत्यय, “अणि वचेरोदुपधायाः" (३।६।९४) से अकार को ओकार तथा दि के इकार का प्रयोगाभाव।
३. अख्यत् । अट् + ख्या + अण् + दि । “आलोपोऽसार्वधातुके" (३।४।२७) से धातुवर्ती अकार का लोप, अन्य प्रक्रिया पूर्ववत् ।
४-५. अलिपत् । अट् + लिप् + अण् + दि । असिचत् । अट् + सिच् + अण् + दि | रूपसाधनप्रक्रिया पूर्ववत् ।
६.अहूत् ।अट् + ह्वे-ह्वा + अण् + दि ।"सन्ध्यक्षरान्तानाम् आकारोऽविकरणे" (३।४।२०) से एकार को आकार तथा उस आकार का “आलोपोऽसार्वधातुके" (३।४।२७) से लोप एवं अन्य प्रक्रिया पूर्ववत् ।।४७७।। ४७८.पुषादिद्युताङ्लकारानुबन्धार्तिसर्तिशास्तिभ्यश्च परस्मै [३।२।२८]
[सूत्रार्थ]
पुष् आदि, द्युत आदि, लृकारानुबन्ध वाली, ऋ, सृ तथा शास धातुओं से अद्यतनी-संज्ञक परस्मैपद प्रत्ययों के परे रहते कर्ता अर्थ में अण प्रत्यय होता है ।। ४७८।