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कातन्त्रव्याकरणम्
[रूपसिद्धि]
१. भवति । भू + अन् + ति । सत्तारूपक्रियार्थक भू की प्रकृत सूत्र से धातुसंज्ञा, “शेषात् कर्तरि परस्मैपदम्' (३ । २।४७) से परस्मैपदसंज्ञक प्रथमपुरुष - एकवचन तिप्रत्यय, “प्रत्ययः परः' से उसका धातु से पर में विधान, “अन् विकरणः कर्तरि" (३।२।३२) से प्रकृति – प्रत्यय के मध्य में अन् विकरण, न् अनुबन्ध का प्रयोगाभाव, “अनि च विकरणे" (३ |५|३) से भूगत ऊकार को गुणादेश ओकार, “ओ अव्'' (१।२।१४) से ओकार को अवादेश ।
२. अत्ति । अद् + ति । अद् भक्षणे (२।१) की धातुसंज्ञा, परस्मैपदसंज्ञक तिप्रत्यय, अन् विकरण, उसका “अदादेलुंग विकरणस्य' (३।४।९२) से लुक्, "अघोषेष्वशिटां प्रथमः" (३।८।९) से द् को त् ।
३. जुहोति । हु + ति । 'हु दाने' (२।६७) की धातुसंज्ञा, ति-प्रत्यय, अन् विकरण, “अदादेलुंग् विकरणस्य" (३।४।९२) से विकरण का लुक्, “जुहोत्यादीनां सार्वधातुके" (३।३।८) से हु को द्वित्व, पूर्ववर्ती हु की "पूर्वोऽभ्यासः" (३।३।४) से अभ्याससंज्ञा, "हो जः" (३।३।१२) से हकार को जकारादेश, “नाम्यन्तयोर्धातुविकरणयोर्गुणः” (३।५।१) से हु-गत उकार को गुणादेश ओकार |
४. दीव्यति । दिव् + यन् + ति । 'दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिकान्तिगतिषु' (३१) से परस्मैपदसंज्ञक प्रथम पुरुष- एकवचन तिप्रत्यय, "दिवादेर्यन" (३।२।३३) से यन् विकरण, न् अनुबन्ध का प्रयोगाभाव, "नामिनो ऊरकुईरोय॑ञ्जने" (३।८।१४) से दिव् की उपधा इकार को दीदिश ।
___ ५. सुनोति । षुञ् +नु + ति | "धात्वादेः षः सः" (३।८।२४) से मूर्धन्य षकार को सकारादेश, परस्मैपदसंज्ञक तिप्रत्यय, "नु : ष्वादेः' (३।२।३४) से नु विकरण, "नाम्यन्तयोर्धातुविकरणयोर्गुणः' (३।५।१) से नु-घटित उकार को गुणादेश ओकार।
६. तुदति । तुद + अन् + ति । 'तुद व्यथने' (५।१) धातु से तिप्रत्यय, “अन् विकरणः कर्तरि" (३।२।३२) से अन् विकरण, न् अनुबन्ध का प्रयोगाभाव, "नाम्नश्चोपधाया लघोः' (३।५।२) से तुद्-घटित उपधासंज्ञक उकार को प्राप्त गुण का “तुदादेरनि" (३।५।२५) से निषेध ।
७. रुणद्धि । रुध् + न +ति । 'रुधिर् आवरणे' (६।१) धातु से तिप्रत्यय, "स्वराद् रुधादेः परो नशब्दः" (३।२।३६) से न-विकरण, "घढधभेभ्यस्तथो