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कातन्त्रव्याकरणम्
इडागम, “सिचि परस्मै स्वरान्तानाम्' (३।६।६) से इकार को वृद्धि, सकार को मूर्धन्य षकारादेश तथा दि-गत इकार का लोप-दकार को तकारादेश ।
३. अकरिष्यत् । अट् + कृञ् + इट् + स्य + ति । कृञ् धातु से भूतकाल में क्रियातिपत्तिसंज्ञक विभक्ति - ति, अडागम, स्य प्रत्यय, इडागम, ति-गत इकारलोप तथा सकार को षकारादेश ।। ४३० ।
४३१. भविष्यति भविष्यन्त्याशीःश्वस्तन्यः [३।१।१५] [सूत्रार्थ]
भविष्यत्काल में 'भविष्यन्ती - आशी:-श्वस्तनी' संज्ञक तीन विभक्तियाँ होती हैं ।।४३१।
[दु० वृ०]
भविष्यति काले भविष्यन्त्याशी श्वस्तन्यस्तिस्रो विभक्तयो भवन्ति | कटं करिष्यति, शक्रं वध्यात्, ओदनं भोक्ता ।। ४३१ ।
[वि० प०]
भविष्यति० । वध्यादिति "हन्तेर्वधिराशिषि" (३।४।८२) इति वधिरादेशः ।। ४३१।
[समीक्षा]
पाणिनि ने भविष्यन्ती के लिए लुट्, आशी: के लिए आशीलिङ् तथा श्वस्तनी के लिए लुट् लकार का प्रयोग किया है, जो अत्यन्त कृत्रिमता का सूचक है । उनके सूत्र इस प्रकार हैं - "लूट शेषे च, आशिषि लिङ्लोटौ, अनद्यतने लुट्" (अ० ३।३।१३, ७३, १५)।
[रूपसिद्धि]
१. कटं करिष्यति । कृ + इट् + स्यति । कृ धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा भविष्यत् अर्थ की विवक्षा में भविष्यन्तीसंज्ञकस्यति विभक्ति, "हनृदन्तात् स्ये" (३।७।७) से इडागम, "नाम्यन्तयोः' (३।५।१) से ऋकार को गुणादेश तथा सकार को षकारादेश ।
२. शक्रं वध्यात् । हन् + यात् । हन् धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा भविष्यत् काल में आशी: विभक्ति यात्, “हन्तेर्वधिराशिषि' (३।४।८२) से हन् को वधि आदेश तथा इकार अनुबन्ध का उच्चारणाभाव ।