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कार्तिकेयानुप्रेक्षा आनन्द सहित क्रीड़ा, तथा कर्म कलंकको जोतने रूप विजिगीषा, स्वात्मजनित प्रकाशरूप द्य ति, स्वस्वरूपकी स्तुति, स्वरूप में परमप्रमोद, लोकालोकव्याप्तरूप गति, शुद्धस्वरूपकी प्रवृत्तिरूप कान्ति इत्यादि देवपनेकी उत्कृष्ट क्रियायें सब एकदेश वा सर्वदेशरूप इनमें ही पाई जाती हैं, इसलिये सर्वोत्कृष्ट देवपना इनमें ही पाया जाता है, अतः इनको मंगलरूप नमस्कार करना उचित है। (मं पापं गालयति इति मंगलं अथवा मंगं सुखं लाति ददाति इति मंगलं ) 'म' कहिये पाप उसको गाल ( नाश करे ) तथा 'मंग' कहिये सुख, उसको लाति ददाति कहिये दे, उसको मंगल कहते हैं, सो ऐसे देवको नमस्कार करनेसे शुभपरिणाम होते हैं जिससे पापोंका नाश होता है और शान्तस्वभावरूप सुखकी प्राप्ति होती है।
अनुप्रेक्षाका सामान्य अर्थ बारम्बार चिन्तवन करना है, वह चितवन अनेक प्रकारका है, उसके करनेवाले अनेक हैं, उनसे भिन्नता दिखाने के लिये 'भवियजणाणंदजणणीओ ( भव्यजनानन्दजननीः )' ऐसा विशेषण दिया है। इसलिये मैं ( स्वामिकार्तिकेय ) जिन भव्यजीवोंके मोक्ष होना निकट आया हो उनको आनन्द उत्पन्न करनेवाली, ऐसो अनुप्रेक्षा कहूंगा।
यहां 'अणुपेहाओ ( अनुप्रेक्षाः ) ऐसा बहुवचनांत पद है। अनुप्रक्षा-सामान्य चितवन एक प्रकार है तो भी अनेक प्रकार है, भव्य जीवोंको सुनते ही मोक्षमार्गमें उत्साह उत्पन्न हो, ऐसा चितवन संक्षेपसे बारह प्रकार है, उनके नाम तथा भावनाकी प्रेरणा दो गाथाओंमें कहते हैं:
अधुव असरण भणिया, संसारामेगमण्णमसुइत्तं ।
आसव संवरणामा, णिज्जरलोयाणुपेहाओ ॥२॥ इय जाणिऊण भावह, दुल्लह-धम्माणुभावणाणिच्च ।
मन-वयण-कायसुद्धी, एदा दस दोय भणिया हु ॥३॥ अन्वयार्थः-[ एदा ] ये [ अर्द्धव ] अध्रुव (अनित्य) [ असरण ] अशरण [ संसारामेगमण्णमसुइत्तं ] संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व [ आसव ] आस्रव [ संवरणामा ] संवर [ गिजरलोयाणुपेहाओ ] निर्जरा, लोक अनुप्रक्षायें [ दुल्लह ] बोधि दुर्लभ [ धम्माणभावणा ] धर्म भावना यह [ दस दोय ] बारह भावना [ मणिया ] कही
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