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जैन कर्मसाहित्य और साहित्यकार
कर्मसिद्धान्त पर पर्याप्त साहित्य उपलब्ध होता है । दोनों ही परंपराओं में कर्मसिद्धान्त में निष्णात अनेक आचार्य हुए हैं। उन्होंने अपनी विचक्षण प्रज्ञा से कर्मसिद्धान्त के रहस्यों को समुद्घाटित करने का प्रयास किया है। संस्कृत, प्राकृत एवं लोक भाषाओं में अनेक ग्रन्थ तथा इन पर टीका, टब्बा, चणि आदि का प्रणयन किया है। दोनों ही परंपरा के आचार्यों ने निष्पक्ष भाव से कई सैद्धान्तिक स्थलों पर एक दूसरे के भावों को समझकर अपने ग्रन्थों में उन विचारों को स्थान भी दिया है। इसलिये दोनों ही परंपराओं में कई ग्रन्थ ऐसे भी विद्यमान हैं, जो नाम और वर्ण्य विषय की दष्टि से समान स्तर के हैं।
श्वेताम्बर परंपरा के कर्म साहित्य को समृद्ध करने वाले साहित्यकारों के कुछ एक नाम निम्न हैं
१. शिवशर्मसूरि, २. चूर्णिकार आचार्य चन्द्रर्षि महत्तर, ३. श्री गर्षि, ४. नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि ५. श्री चन्द्रसूरि, ६. मलधारी हेमचन्द्राचार्य, ७, श्री चक्रेश्वरसूरि ८. श्री परमानन्दसूरि, ९. श्री धनेश्वराचार्य १०. श्री जिनवल्लभसूरि, ११. आचार्य मलयगिरि, १२. श्री यशोदेवसूरि, १३. श्री हरिभद्रसूरि, १४. रामदेवसूरि, १५. आचार्य देवेन्द्रसूरि, १६. श्री उदयप्रभसूरि १७. श्री गुणरत्नसूरि, १८. श्री मुनिशेखर, १९. श्री जयतिलकसूरि, २०. उपाध्याय यशोविजयजी आदि।
दिगम्बर परम्परा में कर्मसाहित्य को गौरवशाली बनाने वाले आचार्य निम्न थे- १. श्री पुष्पदंताचार्य २. आचार्य भूतबलि, ३. कुन्दकुन्दाचार्य, ४. स्वामी समन्तभद्र, ५. गुणधराचार्य, ६. वृषभाचार्य, ७. वीरसेनाचार्य, ८. नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ।
वर्तमान में विद्यमान कर्मग्रन्थों का और जो विद्यमान नहीं हैं, तथापि जिनके अस्तित्व का अन्य ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है, उन सबका रचनाकाल विक्रम की २री, ३री शताब्दी से लेकर २०वीं शताब्दी तक का है। इस समय रचित मूल ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं--
कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह, प्राचीन षट् कर्मग्रन्थ, सार्द्धशतक, नवीन पंच कर्मग्रन्थ, मनःस्थिरीकरण प्रकरण, संस्कृत कर्मग्रन्थ (चार), कर्मप्रकृति द्वात्रिंशिका, भावकरण, बंधहेतूदयत्रिभंगी, बंधोदयसत्ताप्रकरण, कर्म-संवेधअंगप्रकरण, भूयस्कारादिविचार, संक्रमकरण, महाकर्मप्रकृतिप्राभृत, कषायप्राभृत, गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासार, पंचसंग्रह आदि।
___ इन ग्रन्थों पर भाष्य, वृत्ति, टिप्पण, अवचूरि, बालावबोध आदि व्याख्या साहित्य भी रचा गया है। इन सब ग्रन्थों का ग्रन्थमान लगभग सात लाख श्लोक प्रमाण होता है। कर्मसाहित्य का आंशिक परिचय
रचनाकाल की प्राचीनता के क्रम से कर्मसाहित्य का आंशिक परिचय इस प्रकार है--
महाकर्मप्रकृतिप्राभूत--इस ग्रन्थ का रचना काल संभवत विक्रम की दूसरी या तीसरी शताब्दी है। इसके रचयिता पुष्पदन्त और भूतबलि हैं । ग्रन्थ ३६,००० श्लोक प्रमाण है । शौरसैनी प्राकृत भाषा में इसकी रचना हुई है । इसे कर्मप्राभृत भी कहा जाता है।
श्वेताम्बर साहित्य में जिस प्रकार आचारांग सूत्र आदि आगम रूप में मान्य हैं इसी प्रकार दिगम्बर साहित्य में कर्मप्राभूत और कषायप्राभूत को आगम रूप में माना गया है। इस ग्रन्थ में कर्म विषयक चर्चा होने से इसे कर्मप्राभृत किंवा महाकर्मप्रकृति कहा गया है। कर्मतत्त्व की विमर्शना के साथ ही इस ग्रन्थ में सैद्धान्तिक विवेचन होने से आगम, सिद्धान्त एवं परमागमखंड के नाम से भी इस ग्रन्थ की प्रसिद्धि है। ग्रन्थ में षट् खण्ड होने से इस ग्रन्थ को षखंडागम और षटखण्डसिद्धान्त भी कहा जाता है ।।