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संक्षिप्त रूप में कर्ममक्ति के दो उपाय बतलाए जा सकते हैं। यथा--
ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः। ज्ञान और क्रिया से मोक्ष होता है । स्थूलदृष्टि से दर्शन को ज्ञान-स्वरूप मानकर सम्यग्दर्शन का ज्ञान में समावेश कर दिया जाता है।
जैनदर्शन में प्रतिपादित कर्ममुक्ति के दो अथवा तीन मार्गों को जैनेतर दर्शनों में प्रकारान्तर से स्वीकार किया गया है। यथा--
वैदिकदर्शन में कर्म, ज्ञान, योग और भक्ति इन चारों को कर्ममुक्ति का साधन माना है। सम्यक्चारित्र में कर्म और योग दोनों ही मार्गों का समावेश हो जाता है। क्योंकि सम्यक् चारित्र में मनोनिग्रह, इन्द्रियजय, चित्तशुद्धि, समभाव आदि का समावेश हो जाता है। कर्ममार्ग में मनोनिग्रह, इन्द्रियजय आदि सात्विक यज्ञ आते हैं तथा योगमार्ग में चित्तशुद्धि के लिये को जाने वाली सत् प्रवृत्ति आती है। अतः कर्ममार्ग और योगमार्ग का समावेश सम्यकचारित्र में हो जाता है। भक्ति में श्रद्धा की प्रधानता होने से भक्तिमार्ग का सम्यग्दर्शन में समावेश होता है। ज्ञानमार्ग का सम्यग्ज्ञान में समावेश हो जाता है।
इस प्रकार जैनदर्शन में प्रतिपादित मुक्ति के उपायों में अन्य दर्शनों द्वारा प्रतिपादित मुक्तिप्रापक साधनों का भी समावेश हो जाता है। कर्मसिद्धान्त और श्वेताम्बर, दिगम्बर परंपरा
भगवान महावीर की शासनपरंपरा प्रभु के निर्वाण होने के बाद ६०९ वर्ष तक तो व्यवस्थित रूप से चलती रही । तदनन्तर वह शासनपरंपरा दिगम्बर और श्वेताम्बर दो परंपराओं के रूप में विभाजित हो गई। इस प्रकार शासन का विभागीकरण हो जाने से सिद्धान्तों में भी अनेकों स्थलों पर परिवर्तन हुआ । कुछ मनकल्पित सिद्धान्त भी बना लिये गये । यद्यपि कर्मसिद्धान्त में मौलिक रूप से कोई विशेष मतभेद दिखलाई नहीं देता है । विशेषत: पारिभाषिक शब्दों में तथा इनकी व्याख्याओं में मतभेद मिलता है।
यदि दोनों ही परम्पराओं के कर्मसिद्धान्त के अधिकृत विद्वान् मिलकर चर्चा करते तो संभव है कर्मवाद विषयक मतभेद तो समाप्त हो जाता, किन्तु परंपरा का व्यामोह समझिये या और कुछ कारण, वैसा नहीं हो सका । मतभेद इसी रूप में बना रहा ।
___ यद्यपि आग्रायणीय पूर्व से कर्मसिद्धान्त का उद्भव हुआ, यह बात दोनों ही परंपराएं समान रूप से स्वीकार करती हैं, तथापि ऐतिहासिक दृष्टि एवं कुछएक मध्यस्थ दिगम्बर विद्वानों के विचारानुसार यही कहा जाता है कि श्वेताम्बर वाङमय वीतराग देव की वाणी से अति निकट है । इतिहासपुरुष पं. सुखलालजी ने भी एक स्थल पर ऐसा ही लिखा है “सचेल दल का श्रुत अचेल दल के श्रुत को अपेक्षा इस मूल अंगश्रुत से अति निकट है।"
१-प्रभु महावीर के निर्वाण होने के लगभग ६०९ वर्ष बाद आर्यकृष्ण के शिवभूति नामक शिष्य हुए थे । कुछ बातों पर इनका मतभेद हो गया था, वे वस्त्र रखने मात्र को भी परिग्रह मान बैठे थे । जबकि ग्रहण करना मात्र परिग्रह नहीं है। उभय परंपरा को मान्य तत्त्वार्थसूत्र में परिग्रह की व्याख्या मूर्छा की गई है। मात्र वस्त्रादि ग्रहण करने को परिग्रह नहीं कहा है। किन्तु आग्रह की प्रबलता के कारण गुरु के बहुत समझाने पर भी नहीं माने और निर्वस्त्र होकर निकल पड़े । अपनी आग्रह-वृत्ति के अनुरूप नवीन सिद्धान्तों का प्रणयन किया । इनके कोन्डिय और कोट्टवीर दो शिष्य हुए थे । इसके बाद इनकी परंपरा चल पड़ी । दिशा ही इनका अम्बर होने से इन्हें 'दिगम्बर' नाम से पुकारा जाने लगा। भगवान महावीर से जो परंपरा चली आ रही थी, इनके श्वेत वस्त्र होने से वह परंपरा 'श्वेताम्बर' के नाम से प्रसिद्ध हुई ।