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रखते । लेकिन यह दोष कर्मशास्त्र का नहीं है । जिस प्रकार गणित, भूगोल, खगोल विज्ञान के प्रति जनमानस की रुचि कम होती है तो इसका दोष उन विषयों का नहीं अपितु उनके अध्येताओं का ही है। इसी प्रकार कर्मशास्त्र की गहनता का ज्ञान स्थूलदर्शी लोग न कर सकें तो यह दोष उन्हीं का है, कर्मशास्त्र का नहीं । जैनदर्शन में कर्मतत्त्व
जैनदर्शन में कर्म की बध्यमान, सत् और उदयमान, मुख्य रूप से तीन अवस्थाएं प्रतिपादित की गई हैं। जिन्हें क्रमशः बन्ध सत्ता, उदय के नाम से संबोधित किया जाता है। जैनेतर दर्शनों में भी सामान्यतया इन्हीं को क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध के नाम से माना गया है । पातञ्जलदर्शन में कर्म, जाति और भोग ये तीन अवस्थाएं बताई हैं, किन्तु जैन वाङमय में कर्म का ज्ञानावरणादि रूप से ८ एवं अवान्तर १४८ भेदों के रूप में जो विश्लेषण प्राप्त होता है, उतना किसी भी दर्शन में नहीं मिलता।
आत्मा के साथ कर्मों का बन्धन किस रूप में होता है, कैसे होता है ? कर्म में कैसे शक्ति पैदा होती है ? कर्म का जघन्य-उत्कृष्ट कितना अवस्थान होता है, उनका विपाक कितने समय बाद हो सकता है? या नहीं भी होता है ? तीव्र-मंदादि शक्तियों का परिवर्तन कैसे होता है या नहीं भी होता है ? बाद में उदय में आने वाले कर्मों का पूर्व में उदय कैसे आ सकता है ? कभी-कभी आत्मा के कितने ही प्रयत्न करने पर भी कर्म अपना फल भोगवाए बिना क्यों नहीं छूटता? संक्लेश परिणाम अपने आकर्षण से कर्मों की सूक्ष्म रज आत्मा पर किस तरह डाल देते हैं ? आत्मा अपनी शक्ति से कर्म के सूक्ष्म रजपटल को किस प्रकार हटा देती है ? इससे आत्मा का क्या स्वरूप उजागर होता है ? कुन्दन की तरह शुद्ध आत्मा भी कर्म के कारण कितनी मलीमस प्रतीत होती है ? कर्मों का घना आवरण होने पर भी आत्मा अपने मौलिक स्वरूप से च्युत क्यों नहीं होती है ? जब वह परमात्मरूप देखने की जिज्ञासू बनती है, तब उसका अन्तरायकर्म के साथ कैसा द्वन्द होता है ? और वह अपने पथ को किस प्रकार निष्कंटक बनाती है ? आत्मज्ञान में सहायक परिणामविशेष-अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरण का और उसमें बाधक मिथ्यात्व का क्या स्वरूप है ? जीव अपने शुद्ध परिणामों की अपूर्व शक्ति-करंट से कर्मों की पर्वतमाला को किस प्रकार चूर-चूर कर डालता है ? और कभी-कभी कर्म की दबी अवस्था उछाल खाकर किस प्रकार प्रगतिशील आत्मा के पथ को अवरूद्ध कर उसका अधःपतन कर देती है ? कौन-कौन से कर्म बंधोदय की अपेक्षा परस्पर विरोधी हैं ? किस कर्म का बंध किस अवस्था में अवश्यंभावी है ? किस कर्म का विपाक किस अवस्था तक नियत और किस अवस्था तक अनियत होता है ? आत्मसंबद्ध कर्म किस प्रकार बाह्य पुद्गलों को आकर्षित करते हैं ? और उन पुद्गलों से शरीरादि निर्माण किस प्रकार होता है ? सर्वथा कर्मविलय होने पर आत्मा का मौलिक स्वरूप किस प्रकार पूर्णतया उजागर होता है ? उससे आत्मा की क्या अवस्था होती है ? और कर्मबद्ध आत्मा की कैसी विचित्र परिणति होती है ? आदि संख्यातीत प्रश्न जो कर्मसिद्धान्त से संबंधित हैं; उन सब का सयुक्तिक एवं सटीक समाधान जैनदर्शन किंवा जैन वाङमय प्रस्तुत करता है । जैनदर्शन के अतिरिक्त वैसा विवेचन पाश्चात्य, पूर्वात्य किसी भी दर्शन में उपलब्ध नहीं होता। कर्म विषयक उत्कृष्ट विषय का गहनता के साथ प्रतिपादन करने वाला प्रस्तुत ग्रन्थ (कर्मप्रकृति ) है। कर्मवाद को व्यावहारिक उपयोगिता
किसी भी कार्य में जब मानव प्रवृत्ति करता है तो किसी-न-किसी प्रकार की विघ्नबाधाएं उपस्थित होती रहती हैं। उन बाधाओं को देखकर बहुत से व्यक्ति घबरा उठते हैं । घबरा कर दूसरों को दोषी ठहराते हैं। एक दूसरे के दुश्मन तक बन जाते हैं। कभी-कभी इतने चंचल हो जाते हैं कि प्रारम्भ किये हुए कार्यों को भी छोड़ बैठते हैं। शक्ति और संतुलन को खो देते हैं।
इस बिगड़ती हुई स्थिति को सुलझाने के लिये एक ऐसे गुरु-नायक की आवश्यकता होती है जो उनकी प्रज्ञा पर आये हुए आवरण को अनावृत कर उपस्थित होने वाले विघ्न का मल कारण क्या है ? इसका यथार्थ समाधान प्रस्तुत कर सके ।