________________
भगवान महावीर से लेकर अब तक कर्मसिद्धान्त विषयक विपुल साहित्य संकलित हुआ है । इस संकलन का भाव और भाषा की दृष्टि से विभाग किया जाये तो स्थलदष्टि से तीन विभाग हो सकते हैं
१. पूर्वात्मक कर्मशास्त्र, २. पूर्वोद्धृत कर्मशास्त्र (आकररूप कर्मग्रन्थ), ३. प्राकरणिक कर्मशास्त्र ।
पूर्वात्मक कर्मशास्त्र--यह विभाग कर्मशास्त्र का बहत विस्तृत, गहन, व्यापक एवं सबसे पहला है । क्योंकि इसका सम्बन्ध दृष्टिवाद के अन्तर्गत १४ पूर्वो में से आठवें कर्मप्रवाद नामक पूर्व से तथा आग्रायणीय पूर्व के कर्मप्राभृत से रहा है । पूर्वविद्या का अस्तित्व भगवान महावीर के निर्वाण होने के बाद ९०० या १००० वर्ष तक ऋमिक ह्रास के रूप में चलता रहा । इस समय में पूर्वात्मक कर्मशास्त्र मूलरूप में विलुप्त हो चुका है । दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परंपरा के पास में पूर्वात्मक कर्मशास्त्र की मूलतः स्थिति विद्यमान नहीं है। .
पूर्वोद्धृत कर्मशास्त्र-यह विभाग पूर्व विभाग से बहुत लघु है, तथापि वर्तमान अध्यगनार्थियों के लिये तो इतना बड़ा है कि इसे आकर कर्मशास्त्र कहा जाता है। इसका संबंध साक्षात पूर्वो से है, ऐसा कथन दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परंपराओं में मिलता है। यह पूर्वोद्धत कर्मशास्त्र आंशिक रूप में दोनों ही परंपराओं के पास मिलता है । किन्तु उद्धार के समय साम्प्रदायिक भेद के कारण नामकरण में कुछ भिन्नता आ गई है । श्वेताम्बर परंपरा में १ कर्मप्रकृति, २ शतक, ३ पंचसंग्रह, ४ सप्ततिका, मुख्यत: ये चार ग्रन्थ और दिगम्बर परंपरा में मुख्यतः महाकर्मप्रकृतिप्राभृत, कषायप्राभृत, ये दो ग्रन्थ पूर्वोद्धृत माने जाते हैं ।
प्राकरणिक कर्मशास्त्र--इस विभाग में कर्मसिद्धान्त के छोटे-बड़े अनेक प्रकरण संकलित किये गए हैं । इस समय इन्हीं प्रकरण ग्रन्थों का अध्ययन-अध्यापन विशेष रूप से प्रचलित है। इन प्राकरणिक कर्मशास्त्रों की रचना विक्रम की आठवीं-नौवीं शताब्दी से लेकर सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में हुई थी। कर्मसिद्धान्त के अध्येता को सर्वप्रथम प्राकरणिक कर्मशास्त्रों का अध्ययन करना होता है । प्राकरणिक कर्मशास्त्रों का अध्ययन करने के बाद मेधावी अध्ययनार्थी आकर ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं।
भाषा--कर्मशास्त्र की व्याख्या मुख्यत: तीन भाषाओं में हुई है-१ प्राकृत, २ संस्कृत और ३ प्रादेशिक ।
प्राकृतभाषा-पूर्वात्मक तथा पूर्वोद्धृत कर्मशास्त्र का प्रणयन प्राकृतभाषा में ही हुआ है । प्राकरणिक कर्मशास्त्र का भी बहुल भाग इस भाषा में रचित है । कई मुलग्रन्थों की टीका, टिप्पणी भी प्राकृत भाषा में मिलती है ।
संस्कृतभाषा--प्राचीन युग के कर्मशास्त्र तो प्राकृतभाषा में बनाये गये थे, किन्तु बाद में जब संस्कृतभाषा का प्रचार-प्रसार बहुत अधिक होने लगा, जनमानस की रुचि भी जब संस्कृत की ओर बढ़ने लगी, उस समय जनता के सुखावबोध के लिये कर्मशास्त्रों के टीका-टिप्पण आदि विद्वानों द्वारा संस्कृत में लिखे गये । कई मल प्राकरणिक कर्मशास्त्र भी दोनों संप्रदायों में संस्कृत भाषा में लिखे हए मिलते हैं ।
प्रादेशिकभाषा--जिस प्रदेश में जो भाषा प्रचलित होती है, इस प्रदेश की जनता को कर्मशास्त्र का ज्ञान कराने के लिये कर्मशास्त्रज्ञों ने इन भाषाओं का भी यथास्थान उपयोग किया है । मुख्यतया--१ कर्नाटकी, २ गुजराती और ३ राजस्थानी-हिन्दी । इन तीन भाषाओं में कर्मसिद्धान्त का लेखन हुआ है । इन भाषाओं का अधिकतर उपयोग मूल और टीका के अनुवाद में किया गया है । विशेषकर प्राकरणिक कर्मशास्त्र के मूल टीकाटिप्पण के अनुवाद में इन भाषाओं का प्रयोग किया गया है । प्रायः कर्णाटकी और हिन्दी भाषा का उपयोग दिगम्बर साहित्य में और गजराती भाषा का उपयोग श्वेताम्बर साहित्य में हुआ है।
२७.