Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तृतीय प्रतिपत्ति - द्वीप समुद्रों का कथन
१९
पडुप्पाएमाणा - प्रत्युत्पद्यमानाः, पवित्थरमाणा - प्रविस्तरन्तः, ओभासमाणा - अवभासमानः-हश्यमान वीचिया - वीचय:-कल्लोलो-तरंगो वाले, बहुउप्पलपउमकुमुयणलिणसुभगसोगंधिय पोंडरीय महापोंडरीय सयपत्त सहस्सपत्तं पफ्फुल्ल केसरोवचिया - बहुत्पल पद्म कुमुदनलिन सुभग सौगंधिक पुण्डरीक महापुण्डरीक शतपत्र सहस्रपत्र प्रफुल्ल केसरोपचिता:-प्रफुल्लित एवं केसर से युक्त अनेकों उत्पलों से-कमलों से, पद्मों से-सूर्यविकासी कमलों से, चन्द्रविकासी कुमुदों से कुछ-कुछ लाल वर्ण वाले नलिनों से, पत्रों से, सुभगों से-पद्मविशेषों से, सौगंधिकों से, विशेष प्रकार के कमलों से, पौण्डरीकों से-सफेद कमलों से, बडे-बडे पुण्डरीकों से, शतपत्र वाले कमलों से, सहस्रपत्र वाले कमलों से द्वीप और समद्र सदा उपचित-शोभा वाले, परिक्खित्ता - परिक्षिप्ता:-घिरे हुए।
भावार्थ - हे भगवन्! द्वीप समुद्र कहां है? हे भगवन्! द्वीप समुद्र कितने हैं ? हे भगवन्! द्वीप समुद्र कितने बड़े हैं ? हे भगवन्! द्वीप समुद्र किस आकार वाले हैं ? हे भगवन् ! उनका आकार भाव प्रत्यवतार-स्वरूप कैसा है ?
हे गौतम! जम्बूद्वीप से प्रारंभ होने वाले द्वीप और लवण समुद्र से आरंभ होने वाले समुद्र हैं। वे द्वीप और समुद्र वृत्ताकार होने से एक रूप हैं। विस्तार की अपेक्षा से नाना प्रकार के हैं अर्थात् दुगुर्ने दुगुने विस्तार वाले हैं, दृश्यमान तरंगों वाले हैं। प्रफुल्लित और केसरयुक्त बहुत सारे उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगंधिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र, कमलों से वे द्वीप समुद्र शोभायमान हैं। प्रत्येक पद्मवरवेदिका से घिरे हुए हैं। प्रत्येक के चारों ओर वनखण्ड हैं। हे आयुष्मन् श्रमण! इस तिर्यकलोक में स्वयंभूरमण समुद्र पर्यंत असंख्यात द्वीप समुद्र कहे गये हैं। . विवेचन - प्रस्तु सूत्र में द्वीप और समुद्र के विषय में पृच्छा की गयी है। प्रभु फरमाते हैं कि सब द्वीपों की आदि (प्रारंभ) में जंबूद्वीप है और सब समुद्रों के प्रारंभ में लवण समुद्र हैं। सब द्वीप और समुद्र गोलाकार होने से एक ही संस्थान वाले हैं। किंतु विस्तार की अपेक्षा नाना प्रकार के हैं। एक लाख योजन का जंबूद्वीप है उसके चारों ओर दो लाख योजन का लवण समुद्र है। लवण समुद्र को घेरे हुए चार लाख योजन का धातकीखण्ड द्वीप है। इस तरह आगे आगे द्वीप और समुद्र दूने दूने विस्तार वाले हैं। इन द्वीप और समुद्रों के लिये 'ओभासमाणा वीचिया' विशेषण दिया है अर्थात् ये द्वीप और समुद्र दृश्यमान तरंगों से तरंगित हैं। यह समुद्रों के लिये तो संगत ही है किंतु द्वीपों पर भी संगत है क्योंकि द्वीपों में स्थित नदी, तालाब तथा जलाशयों में तरंगें होती ही है। ये द्वीप और समुद्र विविध जातियों के कमलों से अत्यंत शोभायमान हैं। प्रत्येक द्वीप और समुद्र एक पद्मवरवेदिका से और एक वनखंड से घिरे हुए हैं। इस तरह इस तिर्यक लोक में एक द्वीप और एक समुद्र के क्रम से असंख्यात द्वीप समुद्र हैं। सबसे अंत में स्वयंभूरमण नामक समुद्र है।
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