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धर्म और उसकी आवश्यकता
मैंने कहा, इस तरह घबराने कार्य नहीं चलेगा। यदि सत्य, संयम, अहिंसा आदिके साथ जीवनको मलंकृत किया जाय, तो अपने लौकिक उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य करने में कोई बाधा नहीं है । आप धज्ञानिक धर्मके उज्ज्वल प्रकाशमें अपनेको तथा अपने कर्तव्यों को देखनेका प्रयत्न कीजिए। इससे शान्तिपूर्वक जीवन व्यतीत होगा तथा मनुष्य-जीवनकी सार्थकता होगी।
गौतमबद्ध ने अपने भिक्षओंको धर्म के विषय में कहा है
'देसेन भिलवे धम्म आधिकल्ला म फलाण परियोसानकल्लाण'भिक्षुओ, तुम आदिकल्याण, मध्यकल्याण तथा अन्त में कल्याणवाले धर्मका उपदेश दो। आचार्य गुणभन्न आत्मानुशासनमें लिखते हैं कि-'धर्म सुखका कारण है। कारण अपने कार्यका विनाशक नहीं होता। अतएव आनन्दके विनाशके भयसे तुम्हें धर्मसे विमुख नहीं होना चाहिए।"
इससे यह बात प्रकट होती है कि विश्व में रक्तपात, संकीर्णता, कलह आदि उत्पातोंका उत्तरदायित्व धर्मर नही । धर्मको म प काले मामिला का ही यह फलंकभम कारनामा है । अधर्म या पापसे उत्तना अहित अथवा विनाश नहीं होता, जितना धर्मका दम्भ दिखाने वाले जीवन अपना सिद्धान्तोंसे होता है । व्याघ्रको अपेक्षा गोमख न्यानके द्वारा जीवन अधिक संकटापन्न बनता है।
लाई एवेबसने ठोक ही कहा है कि "विश्व शान्ति तथा मानवोंके प्रति सद्भावनाका कारण धर्म है, जो घृणा तथा अत्याचार को उत्तेजित करता है, उसे शब्दशः वर्म भले ही कहा जाय. किन्तु भावकी दृष्टि से यह पूर्णतया मिया है ।"3310 भगवानवातका फपन है-*"सल्तनतों और कूटनीतिकी बादी बनकर साइंसने मजहबसे कहीं ज्यादा मारकाट की है, पर यह सब झगड़ा न सच्ची साईसका नतीजा है और न सच्चे शर्म या मजहब का । यह नतीजा है हमारे अन्दरके शंतान, हमारी खुदी, हमारे स्वार्थ और हमारे अहंकारका । हम अपनी छोटी झूठी और चंदरोजा गरजोंके लिए साइंस और मजहब दोनोंका गलत -- .. . - - - १. महावग्ग विनम-पिटक । २. "धर्मः सुरवस्य हेतुः हेतुन विराधकः स्वकार्यस्थ ।
तस्मात् सुखभंगभिया मा भूः धर्मस्य विमुखस्त्वम् ।।२०।" 3. "Religion was intended to living peace or earth and good-will
towards men; whatever tends to hatred and persecution, however correct in the letter, must be utterly wrong in the
spirit."
४. विश्ववाणी अंक ४८