Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 16
________________ जैनशासन ही रहेगी, किन्तु वह इस सत्यका दर्शन करने से अपनी आँखोंको मीष लेता है कि परिवर्तनके प्रचण्ड प्रहारसे बचना किसी के भी दशकी बात नहीं है। महाभारतमें एक सुन्दर कया है-पौतों पर तपित हो एक मरोयसर पानी पीने के लिए पहुंचे। उस जलाशयके समीप निवास करनेवाली दिव्यात्माने अपनी वांकाओंका उत्तर देने के पश्चात् ही जल पीने की अनुज्ञा दी । प्रश्न यह था कि जगत् में सबसे बड़ी आश्चर्यकारी बात कौन-सी है ? भीम, अर्जुन आदि भाइयों के उत्सरोंसे जब सन्तोष न हुआ, तब अन्त में धर्मराज युधिष्ठिरने कहा "अहन्यहनि भूतानि गच्छन्ति ययमन्दिरम् । ... शेषा जीवितुमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम् ॥"" ___ इस सम्बन्धमे मुणभद्राचार्घकी उपित अन्तस्तलको महान् आलोक प्रदान करतो है । वे कहते हैं-अरे, यह आत्मा निद्रावस्था द्वारा अपने में मृत्यकी आशंका को उत्पन्न करता है और जागनेपर जीवन के आनन्दकी झलक दिखाता है । अब यह जीवन-मरणका खेल आत्माकी प्रतिदिनको लीला है, तब भला, यह आरमा इस शरीरमें कितने काल तक ठहरेगा ? मोहकी नोंदमें मग्न रहनेवालोंको गुरु नानक जगाते हुए कहते हैं: जागो रे जिन जागना, अब आगनिकी बार । फेरि कि जागो 'नानका', जब लोवर पांव पसार ॥ आजके भौतिक वायके भवरमें फंसे हुए व्यक्तियोंमसे कभी-कभी कुछ विशिष्ट आत्माएँ मानव-जन्यनकी आमूल्पताका अनुभव करती हुई जीवनको सफल तथा मंगलमय बनाने के लिए छटपटाती रहती है। ऐसे ही विचारों से प्रभावित एक भारतीय नरेश, जिन्होंने आइ० सी० एस० को परीक्षा पास कर ली है, एक दिन कहने लगे-"मेरो आरमामे बड़ा दर्द होता है, जब मैं राजकीय कागजातों आदिपर प्रभातमे सन्ध्यातक हस्ताक्षर करते-करते अपने अनुपम मनुष्य-जीवनके स्वर्णमय दिवसके अवसानपर विचार करता हूँ ! क्या हमारा जीवन हस्ताक्षर करने के जड़पनर के तुल्य है ? क्या हमें अपनी भात्माके लिए कुछ भी नहीं करना है ? मानो हम शरीर ही हों और हमारे आत्मा ही न हो। कभी-कभी आत्मा बेचैन हो सब कामोंको छोड़कर वनवासी बननेको लालायित हो उठता है।" १. प्रतिदिन प्राणी मरकर बम-मन्दिर में पहुँचले रहते हैं। यह बड़े व्याश्चर्यकी बात है कि शेष व्यक्ति जीवनकी कामना करते है-(गानों यमराज उनपर दया कर देगा । २. "प्रसुप्तो मरणाशंका प्रबुद्धो जीवितोत्सवम् । प्रत्यहं जनयस्येष तिष्ठेत् कार्य कियश्चिरम् ।।८२॥"

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