________________
1
j
धर्म ओर उसकी आवश्यकता
धर्म और उसकी आवश्यकता
साम्यवाद सिद्धान्तका प्रतिष्ठापक तथा रूसका भाग्य विधाता लेनिन धर्मकी ओटमें हुए अत्याचारोंसे व्यथित हो कहता है कि विश्वकल्याण के लिए धर्मकी कोई आवश्यकता नहीं है। उसके प्रभाव में आये हुए व्यक्ति धर्मको उस अफीमको गोलीके समान मानते हैं, जिसे खाकर कोई अफीमची क्षण भरके लिए अपने में स्फूर्ति और' शक्तिका अनुभव करता है। इसी प्रकार उनकी दृष्टिसे धर्म भी कृत्रिम आनन्द अथवा विशिष्ट शान्ति प्रदान करता है ।
यह दुर्भाग्यकी बात है कि इन असन्तुष्ट व्यक्तियोंको वैज्ञानिक धर्मका परिचय नहीं मिला, अन्यथा ये सत्यान्वेषी उस धर्म की प्राण-पणसे आराधना किये बिना न रहते। जिन्होंने इस महान् साधना के साधनभूत मनुष्यजन्मकी महत्ताको विस्मृत कर अपनी आकांक्षाओं की पूर्तिको हो नर-जन्मका ध्येय समझा है, वं गहरे भ्रम ऐसे हुए हैं और उन्हें इस विश्वकी वास्तविक स्थितिका बोध नहीं प्रतीत होता ।
सम्राट् अमोघवर्ष अपने अनुभव के आधारपर मनुष्य जन्मको हो असाधारण महत्वको वस्तु बताते हैं। अपनी अनुपम कृति प्रश्नोत्तर रत्न- मालिकामे उन्होंने कितनी उद्बोधक बात लिखी है --
" किं दुर्लभ ? नृजन्म प्राप्येदं भवति किं च कर्तव्यम् ? आत्महितमहितसंगत्यागो रागश्च गुरुवचने || "
इस मानव जीवनकी महत्तापर प्रायः सभी सन्तोंने अमर गाथाएं रची हैं । इस जीवन के द्वारा ही आत्मा सर्वोत्कृष्ट विकासको प्राप्त कर सकती है। कबीर बासने कितना सुन्दर लिखा है
"मनुज जनम दुरलभ अहै, होय न दूजी बार | पक्का फल जो गिर गया, फेर न लागे डार ॥"
वैभव, विद्या, प्रभाव आदिके अभिमानमें मस्त हो यह प्राणी अपनेको अजरअमर मान अपने जीवनकी बोलती हुई स्वर्ण-घड़ियोंकी महत्ता पर बहुत कम ध्यान देता है । वह सोचता है कि हमारे जीवनको आनन्द गंगा अविच्छिन्न रूपसे बहती
1. Religion, to his master, Marx, had been the "Opium of the people" and to Lenin it was "a kind of spiritual cocaine in which the slaves of capital drown their human perception and their demands for any life worthy of a human being."
- Fulop Miller, Mind and Face of Bolshevism p. 78.