Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 13
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1. अरिहंत :- तीर्थंकर परमात्मा ! अशोकवृक्ष आदि आठ प्रातिहार्य और ज्ञानातिशय आदि चार अतिशयों से युक्त ! 2. अकर्मभूमि :- जहाँ असि, मसि और कृषि का व्यापार नहीं होता है । जहाँ तीर्थंकर आदि पैदा नहीं होते हैं । जहाँ प्रभु का शासन नहीं होता है जहाँ मनुष्य युगलिक के रूप में पैदा होते है । अकर्मभूमि 30 हैं | 3. अकल्पनीय :- आचार विरुद्ध ! जो वस्तु साधु को वहोरना नहीं कल्पता हो, वह अकल्पनीय कहलाती है जैसे - बासी भोजन, कंदमूल आदि साधु के लिए अकल्पनीय है । 4. अकामनिर्जरा :- बाह्य कष्टों को सहन करनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवों की निर्जरा को अकामनिर्जरा कहते हैं । इच्छा रहित तप आदि से होनेवाली निर्जरा अकामनिर्जरा कहलाती है। 5. अकिंचन :- जिसके पास कुछ भी न हो अर्थात् सभी प्रकार के बाह्य परिग्रह का त्याग करनेवाला । 6. अक्षत :- चावल ! क्षत अर्थात् खंडित । अक्षत अर्थात् जो खंडित न हो । 7. अक्षय स्थान :- मोक्ष । जो कभी क्षय होनेवाला न हो ऐसा स्थान । 8. अक्षर :- जिसका कभी नाश न हो । स्वर और व्यंजन को भी अक्षर कहा जाता है। 9. अगार :- घर। 10. अणगार :- घर रहित साधु को अणगार कहते हैं | 11. अगुरुलघु :- गुरु = भारी, लघु = हल्का । जो भारी भी न हो और हल्का भी न हो, उसे अगुरुलघु कहते हैं | 12. अघाती कर्म :- जो कर्म आत्मा के मूल गुणों का घात नहीं करते हैं वे अघाती कर्म कहलाते हैं । वेदनीय , आयुष्य , नाम और गोत्र अघाती कर्म हैं | 13. अचक्षुदर्शन :- चक्षु अर्थात् आँख ! आँख सिवाय अन्य इन्द्रियों For Private and Personal Use Only

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