Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 75
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 609. भवचक्र :- जहाँ आत्मा जन्म - मरण के चक्र में घूमती रहती है, उसे भवचक्र कहते हैं। 610. भरत क्षेत्र :- जंबुद्वीप के दक्षिण भाग में आया हुआ क्षेत्र भरत क्षेत्र है । जो दूज के चंद्र के समान आकारवाला है । उसका व्यास 526 योजन है । जंबुद्वीप में एक, धातकी खंड में दो और पुष्करार्घ द्वीप में दो इस प्रकार कुल 5 भरतक्षेत्र आए हुए हैं। _611. भवनपति :- देवताओं के चार प्रकार हैं-भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष और वैमानिक ! भवनपति निकाय में असुरकुमार आदि 10 भेद हैं | _____612. भवधारणीय :- देवताओं के शरीर दो प्रकार के होते हैं1) भवधारणीय 2) उत्तरवैक्रिय | जो शरीर जन्म से ही होता है, वह भवधारणीय कहलाता है और वैक्रिय लब्धि द्वारा जो शरीर बनाया जाता है, उसे उत्तरवैक्रिय शरीर कहते हैं । उत्तर वैक्रिय शरीर मर्यादित समय तक ही रहता है । 613. भवनिर्वेद :- संसार के सुखों के प्रति जो वैराग्यभाव पैदा होता है, उसे भवनिर्वेद कहते हैं। 614. भवप्रत्ययिक :- प्राप्त भव के कारण ही आत्मा को मिलनेवाली शक्तियाँ ! जैसे - पक्षी का भव मिलने से उड़ने की शक्ति सहज प्राप्त होती है। जलचर प्राणी के रूप में पैदा होने से पानी में तैरने की शक्ति सहज प्राप्त होती है । देव और नारक के जीवों को भी अवधिज्ञान और वैक्रिय शरीर, देव और नारक के जन्म के कारण ही प्राप्त होते हैं । 615. भवभीरु :- संसार के वास से भयभीत बनी आत्मा को भवभीरु कहते हैं। 616. भवाभिनंदी :- संसार के सुखों में ही अत्यंत आसक्त बनी आत्मा को भवाभिनंदी कहते हैं। 617. भामंडल :- प्रभु की मुखमुद्रा के मस्तक के पीछे रहा हुआ एक तेजस्वी चक्र , जिसमें प्रभु के मुख का तेज संक्रमित होता है । = 63 For Private and Personal Use Only

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