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719. लोकाग्र भाग :- चौदह राजलोक रूप विश्व का सबसे ऊपर रहा हुआ अग्रभाग । इस भाग में सिद्धों का वास है ।
720. लज्जालुता :- सद्धर्म की प्राप्ति की योग्यता स्वरूप जो 21 गुणं बतलाए हैं, उसमें लज्जा भी एक विशिष्ट गुण है । लज्जालु व्यक्ति गलत काम करते हुए घबराता है । निर्लज्ज व्यक्ति को पाप करने में कुछ भी डर नहीं लगता है ।
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721. लांतक देवलोक :- बारह वैमानिक देवलोक में छठे देवलोक का नाम लांतक देवलोक है ।
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722. वक्र गति :- जीव एक गति से दूसरी गति में जाता है, तब उसकी दो गतियाँ होती हैं- ऋजुगति और वक्रगति !
मरने के बाद उत्पत्ति का स्थान समश्रेणि में हो तो आत्मा ऋजुगति (सरलगति) से प्रयाण करती है और उत्पत्ति का स्थान विषमश्रेणि में हो तो आत्मा वक्रगति से प्रयाण करती है ।
723. वक्र-जड़ :- भरत - ऐरावत क्षेत्र में अवसर्पिणी काल में हुए 24 तीर्थंकरों के शासन में पैदा होनेवाले जीव एक समान स्वभाव वाले नहीं होते हैं ।
पहले ऋषभदेव प्रभु के शासन के जीव ऋजु और जड़ थे । अजितनाथ से लेकर पार्श्वनाथ तक बाईस तीर्थंकरों के शासन के जीव ऋजु और प्राज्ञ थे ।
महावीर प्रभु के शासन में पैदा हुए जीव वक्र और जड़ हैं ।
जड़ता के कारण सत्यमार्ग को समझना कठिन है और वक्रता के कारण सत्यमार्ग को समझने पर भी उसका पालन कठिन है ।
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724. वचन क्षमा :- 'क्षमा रखना' यह तीर्थंकरों की आज्ञा है, ऐसा मानकर क्षमा भाव को धारण करना, उसे वचन क्षमा कहते हैं ।
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725. वचनातिशय :- तीर्थंकर परमात्मा की वाणी, वाणी के 35 गुणों होती है । तारक परमात्मा अर्ध मागधी भाषा में देशना देते हैं, परंतु
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