________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
783. शाश्वत चैत्य :- जो जिनमंदिर सदाकाल विद्यमान रहनेवाले हों, वे शाश्वत चैत्य कहलाते हैं ।
784. शास्त्र :- सर्वज्ञ प्रणीत सिद्धांत , जो शब्द रूप में लिखे गए हों, वे शास्त्र कहलाते हैं।
785. शिबिका :- पालकी , तारक तीर्थंकर परमात्मा दीक्षा अंगीकार करने के लिए जब अपने महल से प्रयाण करते हैं, तब वे शिविका में बैठे होते हैं, जिसे देवता और मनुष्य वहन करते हैं।
786. शिलान्यास :- मकान या मंदिर की खनन विधि के बाद जो सर्वप्रथम विधिपूर्वक पाषाण रखा जाता है, उस विधि को शिलान्यास कहते हैं ।
787. शीतलेश्या :- जलती हुई वस्तु को शांत कर देनेवाली एक प्रकार की लब्धि को शीतलेश्या कहते हैं ।
788. शुक्ल पाक्षिक :- जिस आत्मा का संसार परिभ्रमण अर्ध पुद्गल परावर्तकाल से अधिक न बचा हो, उसे शुक्ल पाक्षिक कहते हैं ।
789. शुश्रूषा :- धर्मश्रवण की तीव्र उत्कंठा को शुश्रूषा कहते हैं ।
790. शैलेशीकरण :- शैलेश = मेरुपर्वत । जिस अवस्था में आत्मा मेरु की तरह निष्प्रकंप होती है । सयोगी केवली गुणस्थानक में रही हुई आत्मा अपने योगों का निरोध कर जब अयोगी गुणस्थानक को प्राप्त करती है, तब आत्मा शैलेशीकरण करती है ।
791. शैक्षक :- थोडे समय पहले ही जिसने दीक्षा अंगीकार की हो, उसे शैक्षक कहते हैं । शैक्षक अर्थात् नूतन दीक्षित ।
____792. श्रुतकेवली :- संपूर्ण चौदहपूर्व का ज्ञान जिसे हो, वे श्रुतकेवली कहलाते हैं | श्रुतकेवली भी पदार्थों का निरूपण केवलज्ञानी की तरह कर सकते हैं अर्थात् एक ओर केवली देशना देते हों और दूसरी ओर चौदहपूर्वी देशना देते हों तो उनकी देशना में कुछ भी फर्क नहीं होता है ।
793. श्रोत्रेन्द्रिय :- कान । 794. श्वेतांबर :- श्वेत वस्त्र धारण करनेवाले श्वेतांबर कहलाते हैं ।
795. शुक्ल लेश्या :- मन के अत्यंत ही निर्मल परिणाम । किसी को लेश भी पीड़ा नहीं देने की मनोवृत्ति ।
-
6810
For Private and Personal Use Only