Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 96
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 817. सचित्त परिहारी :- तीर्थयात्रा के लिए जिन छह नियमों का पालन करने का होता है, उनमें एक सचित्तपरिहारी है अर्थात् सचित्त वस्तु उपभोग का त्याग करना । के 818. सदाचारी :- श्रेष्ठ आचार धर्मों का पालन करनेवाला सदाचारी कहलाता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 819. सनत् कुमार देवलोक :- तीसरे वैमानिक देवलोक का नाम सनत् कुमार है । 820. सत्तागत कर्म :- जो कर्म अभी तक उदय में नहीं आए हों, वे कर्म सत्तागतकर्म कहलाते हैं । 821. सद्गति :- देव और मनुष्य गति को सद्गति तथा तिर्यंच और नरक गति को दुर्गति कहते हैं । 822. सपर्यवसित श्रुत :- जिस श्रुतज्ञान का अंत आता हो, उसे सपर्यवसित श्रुत कहते हैं । भरत व ऐरावत क्षेत्र की दृष्टि से अवसर्पिणी काल के पाँचवें आरे के अंत में श्रुत का अंत आता है । 823. सप्तभंगी :- किसी भी वस्तु को स्पष्टरूप से समझने के लिए उसके सात विकल्प हो सकते हैं-जैसे 84 1) स्यात् अस्ति 2) स्यात् नास्ति 3) स्यात् अस्ति नास्ति 4) अवक्तव्य 5) स्याद् अस्ति अवक्तव्य 6 ) स्याद् नास्ति अवक्तव्य 7) स्याद् अस्ति नास्ति अवक्तव्य । 824. समचतुरस्र संस्थान :- जिसके चारों कोने एक समान हों 1) बाएँ घुटने से दायाँ स्कंध 2 ) दाएँ घुटने से बायाँ स्कंध 3) कपाल के मध्यभाग से पलाठी के मध्य भाग तक 4) पलाठी का अंतर । ये चारों माप एक समान हों, उसे समचतुरस्त्र संस्थान कहते हैं । 825. समभिरूढ नय :- जिस शब्द का धातु - प्रत्यय से जैसा अर्थ होता हो, उसी के अनुसार शब्दप्रयोग स्वीकार करनेवाला । जैसे-नृन् पालयति इति नृपः मनुष्यों का पालन करे वह राजा । 826. समभूतला पृथ्वी :- चौदह राजलोक के एकदम मध्य का भाग, जिस भूमि से ऊपर-नीचे 7-7 राजलोक होते हैं तथा पूर्व आदि चारों दिशाओं में आधा-आधा राजलोक होता है । For Private and Personal Use Only

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