Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 99
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुषम सुषम है, इस काल में सुख की बहुलता होती है । यह आरा चार कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण है । 850. सुस्वर नाम कर्म :- जिस कर्म के उदय से कोयल के समान मधुर स्वर प्राप्त होता है, उसे सुस्वर नामकर्म का उदय कहते हैं । 851. सौधर्म इन्द्र :- पहले देवलोक का नाम सौधर्म देवलोक है, उसके अधिपति का नाम सौधर्म इन्द्र है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 852. स्कंध :- अनेक पुद्गल परमाणुओं के समूह को स्कंध कहते हैं । 853. स्त्रीवेद :पुरुष के साथ भोग की अभिलाषा को स्त्रीवेद कहते हैं अथवा स्त्री के आकार में शरीर की प्राप्ति हो, उसे स्त्रीवेद कहते हैं । 854 स्थलचर :- भूमि पर चलनेवाले तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों को स्थलचर कहते हैं । 855. स्थापना निक्षेप :- मुख्य वस्तु की अनुपस्थिति में उसकी स्मृति के लिए उसके जैसे आकारवाली वस्तु में मुख्य वस्तु की कल्पना करना उसे स्थापना निक्षेप कहते हैं । जैसे प्रभु की प्रतिमा में प्रभु की कल्पना करना । 856. स्थावर जीव :- जो जीव एक ही स्थान पर स्थिर होते हैं अथवा अपनी 'इच्छानुसार कहीं गमन-आगमन नहीं कर सकते हैं, वे स्थावर कहलाते हैं । इसके पाँच भेद हैं-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकास वायुकाय और वनस्पतिकाय | 857. स्थावर तीर्थ : जिसके आलंबन से भवसागर से पार उतरा जाता है, उसे तीर्थ कहते हैं । जो तीर्थ एक ही स्थान पर स्थिर होते हैं, I वे स्थावर तीर्थ कहलाते हैं। जैसे- शत्रुंजय, गिरनार आदि । 858. स्वदारा संतोषव्रत :- अपनी ही स्त्री में संतोष भाव धारण करना और परस्त्री को माता या बहिन समान समझना, उसे स्वदारा संतोषव्रत कहते हैं । कहते हैं । 859. स्वयं संबुद्ध :- किसी भी व्यक्ति के उपदेश बिना जिस आत्मा ने स्वयं ही बोध प्रात किया हो, उसे स्वयं संबुद्ध कहते हैं । 860. स्वर्गलोक :- वैमानिक देवों के रहने के आवास को स्वर्गलोक कहते हैं । 861. स्वाध्याय :- जिसमें आत्मा का चिंतन-अध्ययन हो, उसे स्वाध्याय For Private and Personal Use Only 87

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