Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 100
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 862. स्वस्तिक :- प्रभु समक्ष जब अक्षत पूजा की जाती है, तब स्वस्तिक की रचना की जाती है । स्वस्तिक में रही चार पंखुड़ियाँ चार गतियों का सूचन करती हैं । अष्ट मंगल में स्वस्तिक की आकृति भी मंगल-स्वरूप है। 863. स्वयंभूरमण समुद्र :- मध्यलोक में जो क्रमशः द्वीप-समुद्र आये हुए हैं, उनमें सबके अंत में स्वयंभूरमण समुद्र है । यह समुद्र सबसे बड़ा अर्थात् आधे राजलोक के विस्तारवाला है, इसमें 1000 योजन लंबे मत्स्य पाए जाते हैं। 864. हिंसानुबंधी रौद्रध्यान :- जिस ध्यान में दूसरे जीवों को मार डालने के क्रूर विचार हों, उसे हिंसानुबंधी रौद्रध्यान कहते हैं । 865. हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा :- जिसमें मात्र वर्तमान काल का ही विचार हो। ___866. हुंडक संस्थान :- यह नाम कर्म की प्रकृति है । इस कर्म के उदय से शरीर के अंगोपांग बेडौल होते हैं | 867. ही :- इसके अनेक अर्थ हैं(1) लज्जा (2) एक दिक्कुमारी । 'क्ष' 868. क्षणिक :- एक क्षण बाद जो नष्ट हो जानेवाला हो, वह क्षणिक कहलाता है। 869. क्षणिकवाद :- बौद्धमत, जो प्रत्येक वस्तु को क्षणस्थायी समझता है । इसके मत से प्रत्येक वस्तु दूसरे समय में नष्ट हो जाती है । _870. क्षपक श्रेणी :- घाति कर्मों का क्षय करने के लिए आत्मा क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होती है । क्षपक श्रेणी में रही आत्मा कर्मों को जड़मूल से उखाडने का काम करती है । क्षपकश्रेणी का प्रारंभ आठवें गुणस्थानक से होता है और 12वें के अंत में समाप्ति होती है । क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ बनी आत्मा अवश्य वीतराग और सर्वज्ञ बनती है । 688 = = For Private and Personal Use Only

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