Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 95
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुरिन्द्रिय कोई पंचेन्द्रिय तिर्यंच और समुच्छिम मनुष्य इनके सम्मूर्छन ही जन्म होता है। 805. संरक्षणानुबंधी :- स्त्री व धन आदि के संरक्षण हेतु तीव्र ममता के परिणाम !रौद्रध्यान का यह चौथा भेद है | 806. संलीनता :- बाह्यतप के छह भेदों में छठा भेद संलीनता है । अपने अंगोपांगों व इन्द्रियों को संकुचित कर रखना अर्थात् नियंत्रण में रखना। 807. संवर :- आत्मा में आते हुए कर्मों को रोकना । समिति, गुप्ति, परिषह, यतिधर्म, भावना और चारित्र आदि 57 भेद हैं | संवरतत्त्व आस्रव का विरोधी तत्त्व है। 808. संवत्सरी प्रतिक्रमण :- वर्ष में एक बार किये जानेवाला प्रतिक्रमण । यह प्रतिक्रमण पर्युषण के अंतिम दिन किया जाता है । 809. संवेग :- मोक्षप्राप्ति की तीव्र अभिलाषा को संवेग कहते हैं । 810. संसार :- जहाँ आत्मा जन्म - मरण की पीड़ा का अनुभव करती है। एक गति में से दूसरी गति में जीवात्मा को भटकना पड़ता है। 811. संस्थान विचय धर्मध्यान :- जिस ध्यान में चौदह राजलोक रूप विश्व में रहे छह द्रव्यों का चिंतन किया जाता है, वह संस्थान विचय नाम का धर्म ध्यान है। 812. संज्ञा :- अनादि काल से आत्मा में पड़े हुए संस्कार । ये संज्ञाएँ अनेक प्रकार की हैं। ___813. चार संज्ञाएँ :- आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा और परिग्रह संज्ञा। ___814. दस प्रकार की संज्ञाएं :- आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध मान, माया, लोभ, लोकसंज्ञा और ओघसंज्ञा । तीन प्रकार की संज्ञाएं- 1) दीर्घकालिकी 2) हेतुवादोपदेशिकी 3) दृष्टिवादोपदेशिकी । ___815. सकृत्बंधक :- जो मोहनीय कर्म की 70 कोड़ाकोड़ी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति का एक बार बंध करनेवाली हो, वह आत्मा सकृत्बंधक कहलाती है। 816. सज्झाय :- स्वाध्याय । - 835 For Private and Personal Use Only

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