Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 94
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 796. षट्काय :- पृथ्वीकाय, अप् काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय - इन छह कायों के लिए संयुक्त शब्द 'षट्काय' है । ____797. षड्स्थानक :- जैन दर्शन में आत्मा के छह स्थान हैं- 1) आत्मा है 2) आत्मा नित्य है 3) आत्मा कर्म की कर्ता है 4) आत्मा कर्म की भोक्ता है । 5) आत्मा का मोक्ष है और 6) मोक्ष का उपाय है । 798. संकेत पच्चक्खाण :- किसी संकेत को निश्चयकर जो पच्चक्खाण किया जाता है, उसे संकेत पच्चक्खाण कहते हैं । जैसे - नवकारसी, मुट्ठसी, गंठसी आदि । 799. संक्लिष्ट परिणाम :- कषाय या राग-द्वेष युक्त मन के परिणाम अध्यवसायों को संक्लिष्ट परिणाम कहते हैं | 800. संघ :- साधु, साध्वी , श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध समूह को संघ कहते हैं। 801. संघयण नामकर्म :- जिस नाम कर्म के उदय से जीव को वज्रऋषभनाराच आदि संघयण की प्राप्ति होती है, उसे संघयण नाम कर्म कहते हैं । ___ 802. संपदा :- सूत्र बोलते समय जहाँ बीच-बीच में थोड़ा रुकने का होता है, उन रुकने के स्थानों को संपदा कहते हैं । 803. सूक्ष्म संपराय :- संपराय अर्थात् कषाय ! आत्मविकास के जो चौदह गुणस्थानक हैं, उनमें 10 वें गुणस्थानक का नाम सूक्ष्म संपराय है | जहाँ अल्पप्रमाण में कषाय विद्यमान होने से उस गुणस्थानक को सूक्ष्म संपराय गुणस्थानक कहते हैं | 804. संमूर्छिम जीव :- गर्भज और उपपात्त जन्मवालों के अतिरिक्त जीवों का समूर्च्छन जन्म होता है । मनुष्यों व तिर्यंचों की उत्पत्ति गर्भज और सम्मूर्छन के भेद से दो प्रकार की है । एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, [82b= For Private and Personal Use Only

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