Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 91
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 764. व्यंजनावग्रह :- जहाँ इन्द्रिय और उसके विषय का मात्र संयोग हुआ हो, जहाँ पदार्थ का स्पष्ट बोध नहीं होता है, बल्कि अव्यक्त बोध होता है । 765. व्यवहारराशि :- जो जीव अनादिकालीन निगोद में से एक बार भी बाहर निकलकर बादर निगोद आदि में पैदा हुए हों, वे जीव व्यवहार राशि के जीव कहलाते हैं। 766. व्याप्ति :- अविनाभाव संबंध को व्याप्ति कहते हैं । जैसे - जहाँजहाँ धुआँ है, वहाँ-वहाँ अग्नि है । 767. व्यवहार नय :- सात नयों में एक नय का नाम व्यवहार नय है । यह नय वस्तु के एक अंश को ग्रहण करता है । यह नय वस्तुओं के विविध प्रकार के पृथक्करण को भी स्वीकार करता है । जैसे - जीव के दो भेद (त्रस-स्थावर), जीव के तीन भेद (स्त्री, पुरुष और नपुंसक) जीव के चार भेद (देव, नारक, मनुष्य, तिर्यंच) । 768. वीर्यांतराय :- अंतराय कर्म के जो 5 भेद हैं, उनमें एक भेद वीर्यांतराय है । जिस कर्म के उदय से शक्ति होते हुए भी जीव अपनी शक्ति का उपयोग नहीं कर पाता है । 769. विजय :- विजय शब्द के अनेक अर्थ हैं. 1) शत्रु को पराजित करना । 2) महाविदेह क्षेत्र के जो 32 विभाग किए हैं, उन प्रत्येक विभाग को भी विजय कहते हैं। 3) पाँच अनुत्तर विभाग में पहले विभाग का नाम विजय है । 4) जंबूद्वीप के पूर्व द्वार का नाम भी विजय है । 770. विद्याधर :- वैताढ्य पर्वत पर रहनेवाले मनुष्य, जिनके पास अनेक प्रकार की विद्याएँ होती हैं, इस कारण वे विद्याधर कहलाते हैं । 771. वामन संस्थान :- मनुष्य शरीर की बाह्य रचना को संस्थान कहते हैं । इसके छह भेद हैं । पाँचवें संस्थान का नाम वामन संस्थान है । इस संस्थान में शरीर के ऊपर के अंग प्रमाणसर होते हैं, परंतु नीचे के अंग बेडौल होते हैं । 772. वज्रधर :- वज्र रुप हथियार को धारण करनेवाले-इन्द्र ! =790 For Private and Personal Use Only

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