Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 89
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदि के प्रति नम्रतापूर्वक व्यवहार को विनय कहते हैं। छह प्रकार के अभ्यंतर तप में विनय दूसरे नंबर का तप है । 743. विपाक विचय :- धर्म ध्यान के जो चार प्रकार हैं, उनमें एक विपाक विचय है । इस ध्यान में पूर्व में बँधे हुए कर्म का फल अत्यंत ही भयंकर होता है - इस प्रकार का चिंतन किया जाता है । 744. विपाक क्षमा : क्षमा के जो पाँच भेद हैं, उनमें एक विपाक क्षमा है । क्रोध का फल -विपाक अत्यंत भयंकर है । 'मैं क्रोध करूंगा तो मुझे नरक आदि की पीड़ा सहन करनी पड़ेगी' इस प्रकार क्रोध के विपाक परिणाम को जानकर जो क्षमा भाव धारण करता है, उसे विपाक क्षमा कहते हैं । 745. विभंगज्ञान :- मिथ्यादृष्टि आत्माओं के विपरीत हुए अवधिज्ञान को ही विभंगज्ञान कहते हैं। देवता व नारक जीवों को उस उस भव के कारण ही तीन ज्ञान होते हैं । यदि वे सम्यग् दृष्टि हैं तो उन्हें तीसरा अवधिज्ञान होता है और यदि वे मिथ्यादृष्टि हैं तो उन्हें विभंग ज्ञान होता है । 746. विरति :- पाप के त्याग के पच्चक्खाण को विरति कहते हैं । 747. विरतिधर :- जो विरति का पालन करता है, उसे विरतिधर कहते हैं । 748. विरमण :- पापों से रुकना उसे विरमण कहते हैं । 749. विरहवेदना :- किसी भी प्रिय व्यक्ति या वस्तु के वियोग के पीछे होनेवाली वेदना को विरह वेदना कहते हैं । · 750. विराधना :- प्रभु की आज्ञा से विपरीत प्रवृत्ति को विराधना कहते हैं । प्रभु आज्ञा की आराधना से आत्मा का विकास होता है और प्रभु की आज्ञा की विराधना से आत्मा का पतन होता है । 751. विवेकी :- जिसमें हेय - उपादेय का विवेक हो, उसे विवेकी कहा जाता है । For Private and Personal Use Only 752. विषय प्रतिभास ज्ञान :- ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होने से जहाँ पदार्थ का बोध होता है परंतु दर्शन - मोहनीय का क्षयोपशम नहीं होने से जहाँ तत्त्वरुचि पैदा नहीं हुई हो, उस ज्ञान को विषय प्रतिभास ज्ञान कहते हैं । 77

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