Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 90
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 753. विषयाभिलाषा :- पाँच इन्द्रियों के विषयों के भोग की अभिलाषा को विषयाभिलाषा कहते हैं | ___754. वीतराग दशा :- आत्मा में से राग - द्वेष और मोह का सर्वथा नाश होना । अनुकूल वस्तु पर न राग होना और न ही प्रतिकूल वस्तु पर द्वेष होना । 755. विहायोगति :- जिस कर्म के उदय से भूमि का आश्रय लिये बिना भी जीवों का आकाश में गमन होता है वह विहायोगति नामकर्म है । यह दो प्रकार का है-शुभ और अशुभ ! हाथी , बैल , हंस आदि की शुभ गति में कारण शुभ विहायोगति नामकर्म है और गधा, ऊँट आदि की अशुभ गति में कारण अशुभ विहायोगति नामकर्म होता है। ___756. वीर्य :- शक्ति, बल, पुरुषत्व , शुक्र आदि 757. वीर्याचार :- पुण्योदय से प्राप्त हुई शक्ति का धर्मकार्य में उपयोग करना-उसे वीर्याचार कहते हैं । ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार और तपाचार के पालन में अपनी शक्ति को लगाना, उसे वीर्याचार कहते हैं। 758. वृत्तिसंक्षेप :- छह प्रकार के बाह्यतप में तीसरे नंबर का तप ! अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखना, उसे वृत्तिसंक्षेप तप कहते हैं । इस तप द्वारा खाने - पीने की वस्तुओं की संख्या मर्यादित की जाती है । 759. वैक्रिय शरीर :- वैक्रिय वर्गणा के पुद्गलों से बना हुआ शरीर वैक्रिय शरीर कहलाता है । देवता और नारक जीवों का शरीर वैक्रियवर्गणा के पुद्गलों से बना होता है । देवताओं के वैक्रिय शरीर में हड्डी, मांस, चर्बी , खून, मल-मूत्र आदि किसी भी प्रकार का अशुचिमय पदार्थ नहीं होता है । 760. वैमानिक देव :- विमानों में रहनेवाले देवता वैमानिक कहलाते ____761. वैयावच्च :- आचार्य, उपाध्याय आदि की सेवा-भक्ति करना, उसे वैयावच्च कहते हैं । यह भी तीसरे नंबर का अभ्यंतर तप है । 762. वोसिरामि :- मैं त्याग करता हूँ ! 763. व्यंतर देव :- देवों के चार प्रकार हैं- भवनपति , व्यंतर, ज्योतिष और वैमानिक ! 678b= For Private and Personal Use Only

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