Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 85
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जब कि मध्यलोक ऊँचाई में 1800 योजन और चौड़ाई में एक राजलोक प्रमाण है। 710. लोकाकाश :- चौदह राजलोक में रहे हुए आकाश को लोकाकाश कहते हैं। 711. लोकस्वरूप भावना :- आत्म चिंतन के लिए अति उपयोगी जो 12 भावनाएँ हैं । उनमें 10 वीं भावना लोकस्वरूप भावना है । इस भावना में चौदह राजलोक के स्वरूप के बारे में चिंतन किया जाता है । 712. लोकपाल :- चार दिशाओं के अधिपति चार लोकपाल कहलाते हैं । उनके नाम सोम, यम, वरुण और वैश्रवण है | 713. लोकसंज्ञा :- लोकप्रवाह जिस ओर हो, उस प्रकार की प्रवृत्ति करना ! ____714. लोकांतिक देव :- 5 वें ब्रह्म देवलोक के पास आठ कृष्ण राजि के बीच नौ लोकांतिक देव आए हुए हैं | तारक तीर्थंकर परमात्मा की भागवती दीक्षा के ठीक एक वर्ष पहले नौ लोकांतिक देव आकर प्रभु से तीर्थ की स्थापना के लिए प्रार्थना करते हैं । ये सभी देव एकावतारी होते हैं अर्थात् एक भव करके मोक्ष में जानेवाले होते हैं। 715. लोच :- दाढ़ी-मूछ और मस्तक के बालों को जड़मूल से उखाड़कर बाहर निकालना उसे लोच कहते हैं । जैन साधु - साध्वी अपने मस्तक व दाढी-मूछ का लोच करते हैं । तारक तीर्थंकर परमात्मा अपनी पाँच मुट्ठी द्वारा सभी बालों का लोच करते हैं । 716. लोभ संज्ञा :- अधिक-से-अधिक धन पाने की लालसा को लोभ संज्ञा कहते हैं । लोभ संज्ञावाले जीव को चाहे जितना धन मिल जाय, फिर भी उसे संतोष नहीं होता है | जो भी मिला हो, जितना भी मिला हो, वह उसे कम ही लगता है। 717. लोमाहार :- शरीर की रोमराजि के द्वारा जो आहार लिया जाता है, वह लोमाहार कहलाता है । 718. लौकिक धर्म :- संसार के भौतिक सुखों की अभिलाषा से जो धर्म किया जाता है, वह लौकिक धर्म कहलाता है, अथवा लोक व्यवहार में प्रसिद्ध धर्म को लौकिक धर्म कहते हैं । 730 For Private and Personal Use Only

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