________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
694. रत्नत्रयी :- सम्यग्ज्ञान सम्यग् दर्शन और सम्यक् चारित्र के लिए एक संयुक्त नाम रत्नत्रयी है ।
____695. राइ प्रतिक्रमण :- रात्रि संबंधी पापों के नाश के लिए प्रातः काल में जो प्रतिक्रमण किया जाता है, उसे राइ प्रतिक्रमण कहते हैं | भावपूर्वक रात्रि प्रतिक्रमण करने से रात्रि संबंधी पापों का नाश हो जाता है ।
696. रौद्रध्यान :- जिस ध्यान में आत्मा के भयंकर क्रूर परिणाम होते हैं । इस ध्यान के चार भेद हैं-1) हिंसानुबंधी 2) मृषानुबंधी 3) स्तेयानुबंधी 4) संरक्षणानुबंधी । इस ध्यान के फलस्वरूप जीव मरकर नरक में ही पैदा होता है।
697. रूपातीत :- सर्व कर्मों से मुक्त होने पर आत्मा रूपातीत अवस्था को प्राप्त करती है । इस अवस्था में आत्मा अपने शुद्ध आत्मगुणों का अनुभव करती है।
___698. रसबंध :- किसी भी प्रकार के कर्मबंध के साथ रसबंध भी होता है । कर्म का जो तीव्र और मंद फल मिलता है, वह रसबंध को आभारी है।
तीव्र भाव से कर्म करे तो उसका तीव्र फल मिलता है और मंद भाव से कर्म करे तो उसका मंद फल मिलता है ।
699. रोहिणी :- 27 नक्षत्रों में एक नक्षत्र का नाम इस नक्षत्र में जो तप किया जाता है, उसे रोहिणी तप कहते है।
700. लक्षण :- किसी भी पदार्थ में रहे असाधारण गुण या चिह्न को लक्षण कहते हैं । यह लक्षण सिर्फ लक्ष्य में ही घटता है, लक्ष्य को छोड़कर अन्य किसी में वह लक्षण घटता नहीं है ।
___701. लक्ष्य :- जिसको उद्देशित कर कार्य किया जाता है, उसे लक्ष्य कहते हैं ।
___702. लघिमा लब्धि :- योग साधना के फलस्वरूप आत्मा में पैदा होनेवाली 8 प्रकार की लब्धियों में एक लब्धि जिसके फलस्वरूप आत्मा अपने शरीर को छोटे से छोटा बना सकती है ।
-[710
For Private and Personal Use Only