Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 84
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 703. लब्धि अपर्याप्त :- अपर्याप्त नाम कर्म के उदय वाला जीव जब नवीन जन्म धारण करता है, तब स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूरी करने के पहले ही मर जाता है । 704. लवण समुद्र :- मध्यलोक में जंबूद्वीप के चारों ओर वलयाकार में आया हुआ सबसे पहला समुद्र, जिसका व्यास 2 लाख योजन प्रमाण है, जिसका पानी नमक की तरह खारा है । 705. लांछन :- तीर्थंकर परमात्मा की दाहिनी जंघा पर आया हुआ एक चिह्न ! जिनेश्वर परमात्मा की प्रतिमा की पहिचान भी लांछन के आधार पर ही होती है । यह लांछन प्रतिमा की बैठक के नीचे के भाग में होता है । लांछन देखकर यह पता चलता है कि ये कौन से भगवान हैं ! 706. लाभांतराय :- व्यापार आदि में लाभ होने की संभावना हो, फिर भी जिस कर्म के उदय के कारण लाभ नहीं होता है, उसे लाभांतराय कर्म कहते हैं । 707. लव सत्तम :- मोक्ष में जाने के लिए सर्व कर्मक्षय की जो साधना की जाती है, उस साधना में 7 लव जितना आयुष्य कम पड़ जाने के कारण जो आत्मा मरकर अनुत्तर देव विमान में पैदा होती है। 7 लव जितना आयुष्य अधिक होता तो वह आत्मा सर्व कर्मों का क्षय किए बिना नहीं रहती ऐसी आत्मा को लव सत्तम कहते हैं । 708. लेश्या :- लेश्या दो प्रकार की होती है - द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या । द्रव्य लेश्या वर्ण स्वरूप है । भाव लेश्या, कृष्ण आदि द्रव्यों के योग से कषाय से रंजित बने अध्यवसाय स्वरूप है । लेश्याएँ छह प्रकार की हैं- कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल । इनमें पहली तीन अशुभ लेश्या रूप हैं और शेष तीन शुभलेश्या रूपं हैं । 709. लोक :- धर्मास्तिकाय आदि छह द्रव्य जिसमें रहे हुए हैं, उसे लोक कहते हैं । इस लोक के तीन विभाग हैं- ऊर्ध्व लोक, अधोलोक और तिर्च्छालोक । अधोलोक और ऊर्ध्व लोक कुछ न्यून सात राजलोक प्रमाण हैं 720 For Private and Personal Use Only

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