Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 78
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 640. माध्यस्थ्य भावना :- संसारी जीवों के प्रति विचार करने योग्य चार प्रकार की भावनाओं में चौथी भावना माध्यस्थ्य भावना है । जिनको उपदेश देने से कुछ भी लाभ होनेवाला नहीं हो, ऐसे पापी जीवों के प्रति उपेक्षा वृत्ति , उसी को माध्यस्थ्य भावना कहते हैं । 641. मैत्री भावना :- जगत् में रहे हुए जीव मात्र के प्रति हितचिंतन की भावना को मैत्रीभावना कहते हैं । ___642. मिथ्यात्व :- जो वीतराग नहीं हो, उसे देव मानना, जो निग्रंथ नहीं हो उसे गुरु मानना और जो केवली प्ररूपित न हो, उसे धर्म मानना, उसे मिथ्यात्व कहते हैं । जिनवचन से विपरीत वचन में श्रद्धा करना मिथ्यात्व है । 643. माया शल्य :- आत्मा के लिए शल्यभूत तीन प्रकार के शल्यों में पहला शल्य माया शल्य है । माया अर्थात् मन में कपटवृत्ति । 644. मिथ्यादृष्टि :- विपरीतदृष्टि ! 645. मिच्छा मि दुक्कडम् :- मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । 646. मिश्रगुणस्थानक :- आत्मविकास के जो चौदह गुणस्थानक हैं, उनमें तीसरे गुणस्थानक का नाम मिश्रगुणस्थानक है । जिनवचन के प्रति न तीव्र राग भाव हो और न ही तीव्र द्वेषभाव हो । यह गुणस्थानक, चौथे गुणस्थानक से गिरनेवाले को हो सकता है अथवा पतित सम्यग्दृष्टि को पहले से चढ़ते हुए भी हो सकता है । 647. मुहूर्त :- 48 मिनिट के समय को एक मुहूर्त कहा जाता है । 648. मोक्ष :- संपूर्ण कर्मों का क्षय होने पर आत्मा का मोक्ष होता है । मोक्ष अर्थात् राग आदि भाव कर्म और ज्ञानावरणीय आदि आठ द्रव्य कर्मों से सर्वथा छुटकारा । 649. मोहनीय कर्म :- जिस कर्म के उदय से आत्मा भौतिक सुखों में मोहित होती है, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं । इस कर्म के उदय से आत्मा में राग - द्वेष पैदा होते हैं । आत्मा को सम्यक्त्व की प्राप्ति और चारित्र की प्राप्ति में बाधक यह मोहनीय कर्म ही है । 650. मेरुपर्वत :- जंबूद्वीप के मध्य में आया हुआ यह पर्वत मेरुपर्वत 066 = - For Private and Personal Use Only

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