Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 76
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 618. भावनिक्षेप :- प्रत्येक वस्तु में नाम , स्थापना, द्रव्य और भाव रूप चार निक्षेप होते हैं । वस्तु के यथार्थ वास्तविक स्वरूप को भाव निक्षेप कहते हैं । जैसे-तीर्थंकर जब केवली अवस्था में धर्म देशना देते हों, तब भाव निक्षेप से तीर्थंकर कहलाते हैं। 619. भावपूजा :- जिस पूजा में प्रभु के गुणों का वास्तविक कीर्तन आदि हो, उसे भावपूजा कहते हैं । 'चैत्यवंदन आदि भावपूजा स्वरूप हैं । 620. भाषासमिति :- यतनापूर्वक प्रिय, हितकारी और सत्यवचन बोलना - उसे भाषा समिति कहते हैं । 621. भुजपरिसर्प :- जो प्राणी भुजाओं के बल पर चलते हों, बैठने पर जिनके हाथ भोजन आदि करने में काम लगते हों और चलते समय पैर का काम करते हों वे भुज परिसर्प कहलाते हैं, जैसे - बंदर, गिलहरी आदि । ___622. भूमिशयन :- गद्दी - तकिए आदि का उपयोग न कर मात्र संथारा आदि बिछाकर भूमि पर सोना, उसे भूमिशयन कहते हैं | ____623. भोगभूमि :- जहाँ पुण्य का भोग ज्यादा हो, वह भूमि भोगभूमि कहलाती है । युगलिक क्षेत्र - अकर्मभूमि आदि भोगभूमि कहलाते हैं । 624. भोगोपभोग :- जिस वस्तु का एक ही बार उपयोग किया जा सकता हो, उसे भोग कहते हैं । जैसे - आहार, जिस वस्तु का बार बार उपयोग किया जा सकता हो उसे उपयोग कहते हैं - जैसे - वस्त्र, स्त्री, अलंकार आदि। _625. भौतिक सुख :- पाँच इन्द्रियों से संबंधित सुख को भौतिक सुख कहते हैं । ____626. भोगांतराय कर्म :- जिस कर्म के उदय से भौतिक सुखों के भोग में अंतराय पैदा होता हो, उसे भोगांतराय कर्म कहते हैं । 627. भक्तकथा :- भोजन संबंधी बातचीत , चर्चा आदि को भक्तकथा कहते हैं। 628. भाषावर्गणा :- पुद्गलों की आठ वर्गणाएँ हैं । आत्मा जिन पुद्गलों को ग्रहणकर उन्हें भाषा के रूप में परिणत करती है, उन पुद्गलों के समूह को भाषा वर्गणा कहते हैं । 664 === For Private and Personal Use Only

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