Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 80
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 663. मद्य :- शराब ! जो प्रमाद का ही एक प्रकार है । 664. मरणाशंसा :- संलेखनाव्रत स्वीकार करने के बाद शारीरिक कष्ट सहन नहीं होने पर जल्दी मौत आ जाय, ऐसी इच्छा करना, उसे मरणाशंसा कहते हैं । 665. महाविगई :- जिनके भक्षण में भयंकर जीवहिंसा है और जो भयंकर विकार भाव को पैदा करते हैं । महाविगई चार हैं-मद्य, मांस, मधु और मक्ख न ! 666. मंगल कुंभ :- मंगल के लिए जिस कुंभ की स्थापना करते हैं, उसे मंगल कुंभ कहते है | 667. मद और मदन :- मद अर्थात् अभिमान और मदन अर्थात् काम ये आत्मा के अंतरंग दुश्मन है । 668. मधु :- शहद ! यह भी अभक्ष्य महाविगई है । 669. महाश्रावक :- श्रावक के आचार पालन में अत्यंत दृढ़ । 670. मानस जाप :- जो जाप सिर्फ मन में किया जाता है । 671. मृषावाद :- झूठ बोलना । . या 672. यक्ष :- तीर्थंकर परमात्मा शासन की स्थापना करते समय शासन के अधिष्ठायक के रूप में यक्ष की भी स्थापना करते हैं । 24 तीर्थंकरों के कुल 24 यक्ष हैं। ____673. यक्षिणी :- तीर्थंकर परमात्मा शासन की स्थापना के समय यक्षिणी की भी स्थापना करते हैं | 24 तीर्थंकरों की कुल 24 यक्षिणी हैं । _674. योजन :- चार गाऊ का एक योजन होता है । द्वीप, समुद्र आदि शाश्वत पदार्थों के माप का एक योजन 3200 मील जितना होता है । 675. यावज्जीव :- जीवन पर्यंत के लिए जो प्रतिज्ञा की जाती है, वह यावज्जीव कहलाती है। G680 For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102