Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 73
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 594. बहिरात्मा :- नाशवंत देह में ही आत्मबुद्धि करके जो राग - द्वेष में ही नित्य संतप्त होते हैं, उन आत्माओं को बहिरात्मा कहते हैं । ये आत्माएँ हेय- उपादेय के ज्ञान से रहित होती हैं। 595. बंध :- आत्मप्रदेशों के साथ कार्मण वर्गणा के परमाणुओं का जुड़ जाना, उसे बंध कहते हैं । 596. बादर निगोद :- कंदमूल आदि साधारण वनस्पतिकाय के जीव जिन्हें चर्म चक्षुओं द्वारा देखा जा सकता है - उन्हें बादर निगोद कहते हैं । 597. बोधिलाभ :- सम्यक्त्व की प्राप्ति | 598. ब्रह्म देवलोक :- 12 वैमानिक देवलोक में 5 वें देवलोक का नाम ब्रह्म देवलोक है। ___599. ब्रह्मचर्य :- ब्रह्म अर्थात् आत्मा । उसमें रमणता करना, उसे ब्रह्मचर्य कहते हैं । स्त्री-पुरुष की मैथन त्याग संबंधी बाह्य क्रिया को भी व्यवहार से ब्रह्मचर्य कहा जाता है । 600. ब्रह्म गुप्ति :- ब्रह्मचर्य व्रत के रक्षण के लिए जिन नौ वाड़ों का पालन किया जाता है, उन्हें ब्रह्मगुप्ति कहा जाता है । ब्रह्मचर्यव्रत रक्षण के लिए नौ वाड़ें हैं 1. स्त्री, पशु व नपुंसक से रहित बस्ती में रहना । 2. स्त्री कथा का त्याग । 3. निषद्या त्याग-स्त्री के आसन पर 48 मिनिट तक नहीं बैठना । 4. स्त्री के अंगोपांग दर्शन का त्याग । 5. संलग्न दिवाल में रहे दंपत्तिवाले स्थान का त्याग | 6. पूर्वकृत काम-क्रीड़ा का विस्मरण । 7. प्रणीत अर्थात् रसप्रद आहार का त्याग | 8. अति भोजन का त्याग । 9. विभूषा-शरीर के शणगार का त्याग । 601. बारह पर्षदा :- परमात्मा के समवसरण में देवता आदि के बैठने के लिए बारह पर्षदाएँ होती हैं। 1-4 भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष और वैमानिक देवता । न610 For Private and Personal Use Only

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