Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 71
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - प्रायश्चित्त कहते हैं | आत्मा पर लगे पाप रूपी मल के प्रक्षालन के लिए प्रायश्चित्त सर्वश्रेष्ठ उपाय है । जानते अजानते जीवन में जो भी पाप हो गए हों, उसे उसी रूप में गुरु के आगे निवेदन करना, उसे आलोचना कहते हैं । उन पापों के फलस्वरूप गुरु जो भी दंड दे, उसे स्वीकार करना, उसे प्रायश्चित्त कहते हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 575. प्रातिहार्य :- तीर्थंकर परमात्मा के सर्वोत्कृष्ट पुण्य के उदय के प्रतीक रूप आठ प्रातिहार्य होते हैं- 1) अशोकवृक्ष 2) पुष्प वृष्टि 3) दिव्यध्वनि 4) चामर 5) सिंहासन 6) देवदुंदुभि 7 ) तीनछत्र 6) भामंडल । 576. प्रश्नव्याकरण :- बारह अंगों में से दसवें अंग का नाम प्रश्नव्याकरण है। इसमें अनेक प्रश्नों के जवाब हैं । 577. प्रासुक :- जीवरहित अचित्त भोजन को प्रासुक भोजन कहते हैं । 578. प्रवर्तक :साधु समुदाय को संयम में दृढ़ रखनेवाले आचार्य आदि की तरह प्रवर्तक भी एक पद है । 579. प्रवर्तिनी :- साध्वी के समुदाय को संयम में दृढ़ रखनेवाली मुख्य साध्वी । जो अपने समुदाय का योग - क्षेम करती है । 580. प्राप्यकारी इन्द्रियाँ :- पदार्थ और इन्द्रियों का संयोग संबंध होने के बाद, इन्द्रियों को जो पदार्थज्ञान होता है, वे इन्द्रियाँ प्राप्यकारी कहलाती हैं । जैसे 1) स्पर्शनेन्द्रिय 2 ) रसनेन्द्रिय 3 ) घ्राणेन्द्रिय और 4 ) श्रोत्रेन्द्रिय - ये चार इन्द्रियाँ पदार्थ के परमाणुओं का स्पर्श करके पदार्थ का बोध करती है । जैसे- जब तक खाद्य पदार्थ का रसनेन्द्रिय के साथ संयोग न हो तब तक रसनेन्द्रिय को उस पदार्थ में रहे स्वाद Taste का बोध नहीं होता है । 581. पंचांग प्रणिपात दो घुटने, दो हाथ और एक मस्तक इन पाँच अंगों को झुकाकर जो प्रणाम किया जाता है, उसे पंचांग प्रणिपात कहते हैं । 582. पर परिवाद :- अठारह पापस्थानकों में से 16 वें पापस्थानक का नाम 'पर परिवाद' है । इसका अर्थ है - दूसरों में रहे हुए दोषों की निंदा करना । 583. परलोक :- वर्तमान जन्म के बाद के भव को परलोक कहते हैं । For Private and Personal Use Only 59

Loading...

Page Navigation
1 ... 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102