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565. प्रत्याख्यानीय :- सर्व विरति गुण को रोकनेवाले मोहनीय कर्म की उत्तर प्रकृति ! इसके चार भेद हैं-प्रत्याख्यानीय क्रोध, प्रत्याख्यानीय मान, प्रत्याख्यानीय माया और प्रत्याख्यानीय लोभ । इस कर्म का उदय होने पर आत्मा को सर्वविरति धर्म की प्राप्ति नहीं होती है । इस कर्म की स्थिति चार मास की है।
566. प्रदेश बंध :- कर्म रूप पुद्गल स्कंधों का आत्मप्रदेशों के साथ जुड़ना उसे प्रदेश बंध कहते हैं ।
567. प्रत्यक्ष ज्ञान :- मन और इन्द्रियों की सहायता के बिना जो आत्मा को साक्षात् ज्ञान होता है, उसे प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं । अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान में मन और इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं रहती है, अतः उन्हें प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं ।
568. परोक्ष ज्ञान :- मन और इन्द्रियों की सहायता से आत्मा को जो ज्ञान होता है, उसे परोक्ष ज्ञान कहते हैं । इस ज्ञान के दो भेद हैं- मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ।
___569. प्रमोद भावना :- गुणीजनों के गुणों को देखकर मन में खुश होना, उसे प्रमोद भावना कहते हैं ।
____570. प्रमाद :- जिस क्रिया से आत्मा अपने मूलभूत स्वभाव को भूल जाती है, वह सब प्रमाद कहलाता है । इसके मुख्य पांच भेद हैं- 1) मद्य 2) विषय 3) कषाय 4) निद्रा और 5) विकथा ।
571. प्रव्रज्या :- सर्व संग के त्याग रूप मोहमाया के बंधनों को तोड़कर भागवती दीक्षा अंगीकार करना, उसे प्रव्रज्या कहते हैं ।
572. प्रशम :- आत्मा में सम्यग दर्शन गुण पैदा होता है, तब उस सम्यग् दर्शन के सूचक 5 लक्षण पैदा होते हैं. 1) प्रशम 2) संवेग 3) निर्वेद 4) अनुकंपा और 5) आस्तिक्य । प्रशम अर्थात् अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय का शांत हो जाना ।
573. प्रशस्त कषाय :- जिन कषायों का सेवन आत्मा के लिए हानिकारक न हो, बल्कि लाभ करते हों, वे प्रशस्त कषाय कहलाते हैं ।
574. प्रायश्चित्त :- प्रायः करके जो चित्त को अवश्य शुद्ध करता है, उसे G58 =
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