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को लेकर जब तक माँ के पास न आए, तब तक माता आराम से सोई हुई
होती हैं ।
101. अवक्तव्य :- जिन भावों को वाणी के द्वारा व्यक्त न किया जा सके, उन्हें अवक्तव्य कहते हैं ।
102. अस्तेय व्रत :- चोरी के त्याग को अस्तेयव्रत कहते हैं । 103. अंग प्रविष्ट :- द्वादशांगी के भीतर रहे हुए श्रुत को अंग प्रविष्ट कहा जाता है ।
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104. अंगबाह्य :- जिस सूत्र के रचयिता गणधर सिवाय अन्य आचार्य भगवंत हों । उत्तराध्ययन आदि सूत्र अंग बाह्य कहलाते हैं ।
105. अव्यय :- जिसका कभी व्यय अर्थात् नाश नहीं होता हो, उसे अव्यय कहते हैं ।
106. अशरीरी :- जिसका अपना कोई शरीर न हो, उसे अशरीरी कहते हैं । सिद्ध भगवंत अशरीरी कहलाते हैं, क्योंकि उनके पाँच में से एक भी शरीर नहीं होता है ।
107. अव्याबाध सुख :- जिस सुख में लेश भी बाधा नहीं आती हो, उस सुख को अव्याबाध सुख कहते हैं । वेदनीय कर्म के संपूर्ण क्षय से सिद्ध भगवंतों को होनेवाला सुख अव्याबाध सुख कहलाता है ।
108. अष्टमंगल :- • मंगलसूचक ऐसी आठ आकृतियाँ - 1 स्वस्तिक 2 कलश 3 नंदावर्त 4 मत्स्ययुगल 5 दर्पण 6 श्रीवत्स 7 भद्रासन 8 वर्धमान । 109. अष्टाह्निक महोत्सव :- परमात्म भक्ति निमित्त आयोजित आठ दिन के महोत्सव को अष्टाह्निक महोत्सव कहते हैं ।
110. अविरत सम्यग्दृष्टि :- आत्मा में सम्यग् दर्शन के परिणाम हों परंतु चारित्र मोहनीय के कारण विरति के परिणाम का अभाव हो । चौथे गुणस्थानक का नाम अविरत सम्यग्दृष्टि है ।
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111. अष्टप्रवचन माता : श्रमण जीवन के विकास के लिए अष्टप्रवचन माताओं का पालन करना होता है । पाँच समिति और तीन गुप्ति को अष्टप्रवचनमाता कहते हैं ।
पाँच समिति 1. ईर्यासमिति 2. भाषासमिति 3. एषणासमिति 4. आदानभंडमत्त निक्षेपणा समिति 5. पारिष्ठापनिका समिति |
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