Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 29
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 189. उणोदरी :- बाह्य तप का दूसरा भेद । भूख से कम खाना उसे उणोदरी कहते हैं। 190. उत्सर्पिणी काल :- एक काल चक्र का आधाभाग | इसका प्रमाण 10 कोटाकोटि सागरोपम जितना होता है । इसमें छह आरे होते हैं । इस काल में जीवों का बल आयुष्य आदि बढता जाता है और पुद्गलों के रूप, रस में भी वृद्धि होती जाती है । 191. उत्सूत्र प्ररूपणा :- जिन आगम से विरुद्ध प्ररूपणा करना ! उत्सूत्र भाषण सबसे भयंकर पाप है, क्योंकि इससे अनेक आत्माएँ उन्मार्गगामी बनती हैं। 192. उदीरणा :- सत्ता में रहे हुए कर्मों को प्रयत्न विशेष द्वारा समय से पूर्व उदय में लाना । अपक्व कर्मों के पाचन को उदीरणा कहते हैं । 193. उपधान :- ज्ञानाचार के आठ आचारों में चौथा भेद उपधान है। गुरु के सान्निध्य में रहकर विशिष्ट तप आदि की साधना कर गुरु के मुख से सूत्र आदि ग्रहण करना । 194. उपधि :- संयमपालन के लिए उपयोगी ज्ञान - दर्शन व चारित्र के उपकरणों को उपधि कहते हैं । 195. उपपात जन्म :- नारकी व देवताओं के जन्म को उपपात जन्म कहते हैं । इस जन्म में गर्भधारण नहीं होता है | ___196. उपबृंहणा :- गुणीजनों के गुण देखकर उनकी हृदय से अनुमोदनाप्रशंसा करना, उसे उपबृंहणा कहते हैं | 197. उपभोग :- जिस वस्तु का बार-बार उपयोग - भोग किया जा सके उसे उपभोग कहते हैं । जैसे - वस्त्र, आभूषण, स्त्री आदि । 198. उपयोग :- जीव का असाधारण गुण उपयोग है । यह उपयोग जीव मात्र में होता है । इसके मुख्य दो भेद हैं- "1 ज्ञान उपयोग 2 दर्शन उपयोग ।' === 170 For Private and Personal Use Only

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