Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 35
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 244. कल्पोपपन्न :- जहाँ स्वामी-सेवक आदि व्यवहार होता है । उसे कल्पोपपन्न कहते है । 12 वैमानिक तक के देवता कल्पोपपन्न कहलाते हैं । ___245. कल्पातीत :- जहाँ स्वामी - सेवक और छोटे - बड़े का भेद नहीं होता हो, वे देवता कल्पातीत कहलाते हैं । नौ ग्रेवेयक और पाँच अनुत्तर आदि देवता कल्पातीत कहलाते हैं | 246. कवलाहार :- मनुष्य - पशु आदि जो आहार मुख से लेते हैं, उसे कवलाहार कहते हैं । उपवास आदि तपों में कवलाहार का त्याग होता है । 247. कषाय :- कष अर्थात् संसार और आय अर्थात् वृद्धि | जिससे संसार की वृद्धि हो , ऐसी प्रवृत्ति को कषाय कहते हैं । कषाय के मुख्य चार भेद हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ । ____ 248. कंदमूल :- अनंतकाय वनस्पति को कंदमूल कहा जाता है । जैसे- आलू, गाजर, मूली आदि । 249. काम :- स्पर्शनेन्द्रिय की वासना जन्य प्रवृत्ति को काम कहते हैं । 250. काय :- शरीर | काय का अर्थ समूह भी होता है । समग्र लोक में पाँच अस्तिकाय है - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय । ___251. काय गुप्ति :- तीन प्रकार की गुप्ति में तीसरी गुप्ति कायगुप्ति है । कायगुप्ति अर्थात् शरीर और इन्द्रियों को संयम में रखना | 252. कायस्थिति :- एक ही काया में बार बार उत्पन्न होना, उसे कायस्थिति कहते हैं । जैसे - पृथ्वीकाय की कायस्थिति असंख्य उत्सर्पिणी - अवसर्पिणी है। 253. करण सित्तरी :- साधु - साध्वी के लिए उपयोगी क्रियाएँ ! इसके 70 भेद हैं। 254. कर्मभूमि :- जहां असि, मसि और कृषि का व्यापार होता हो उसे कर्म भूमि कहते हैं । कर्मभूमियाँ 15 हैं- 5 भरत क्षेत्र, 5 ऐरवत क्षेत्र और 5 महाविदेह क्षेत्र । ___ 255. कर्मफल :- कर्म के उदय से प्राप्त होनेवाले फल को कर्मफल कहते हैं । 235 For Private and Personal Use Only

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