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256. कर्मादान :- ऐसे व्यापार जिनसे आत्मा भयंकर कर्म का बंध करती है।
257. कलिकाल :- अजैनो में 4 युग प्रसिद्ध हैं- सत् युग, त्रेतायुग द्वापर युग और कलियुग |
258. कायक्लेश :- स्वेच्छा से विहार, केशलोच आदि द्वारा काया को कष्ट देना, उसे कायक्लेश तप कहते हैं।
259. काय प्रविचार :- काया से विषय का सेवन करना ।
260. करण पर्याप्ता :- पर्याप्त नाम कर्म के उदय से जो जीव स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करता है, उसे करण पर्याप्ता कहते हैं ।
261. कायोत्सर्ग :- कुछ समय के लिए मौन रहकर काया की ममता के त्याग की साधना को कायोत्सर्ग कहते हैं | कायोत्सर्ग जिनमुद्रा में किया जाता है।
262. कालचक्र :- एक उत्सर्पिणी और एक अवसर्पिणी के टोटल Total period को एक कालचक्र कहते हैं | 20 कोड़ाकोड़ी सागरोपम का एक कालचक्र होता है।
___263. कृष्ण लेश्या :- छह लेश्याओं में सबसे पहली अत्यंत क्रूर परिणाम वाली लेश्या को कृष्ण लेश्या कहते हैं ।
264. कुंभ स्थापना :- शांतिस्नात्र आदि अनुष्ठानों में विधिपूर्वक मंत्रोच्चारपूर्वक कुंभ की स्थापना की जाती है ।
265. केवलज्ञान :- तीन लोक और अलोक में रहे सभी पदार्थों के भतभावी और वर्तमान की समस्त पर्यायों का ज्ञान जिससे होता है, उसे केवलज्ञान कहते हैं । ज्ञानावरणीय कर्म के संपूर्ण क्षय से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है।
266. किल्बिषिक :- हल्की जाति के देवता । रत्नत्रयी की आशातना आदि करनेवाले किल्बिषिक जाति के देव के रूप में पैदा होते हैं।
267. कृष्ण पाक्षिक :- जिस आत्मा का संसार परिभ्रमण अर्द्ध पुद्गल परावर्त काल से भी अधिक बाकी हो, उन जीवों को कृष्ण पाक्षिक कहते हैं |
268. कृतज्ञता :- अपने उपकारी के उपकार को सदैव याद रखना उसे कृतज्ञता कहते हैं ।
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