Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 41
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 299. गोत्रकर्म :- आत्मा पर लगे आठ कर्मों में सातवाँ गोत्र कर्म है । इसके दो भेद हैं- उच्च गोत्र और नीच गोत्र ! उच्च गोत्र कर्म के उदय से जीव ऊँचे कुल में पैदा होता है और नीच गोत्र कर्म के उदय से जीव हल्के कुल में पैदा होता है । 300. ग्रैवेयक :- 12 वैमानिक देवलोक के ऊपर नौ ग्रैवेयक देवलोक आए हुए हैं । ये सभी देव कल्पातीत कहलाते हैं | अभव्य की आत्मा उत्कृष्ट द्रव्य चारित्र के बल से अधिकतम नौवें ग्रैवयक तक उत्पन्न हो सकती है । गुप्ति :- मन, वचन और काया की असत् प्रवृत्ति का त्याग और सत्प्रवृत्ति के आचरण को गुप्ति कहते हैं । गुप्तियाँ तीन हैं- 1 ) मन गुप्ति 2) वचन गुप्ति और 3) कायगुप्ति । 301. 302. गरल अनुष्ठान :- पर भव में सांसारिक सुख की प्राप्ति के संकल्प पूर्वक जो धार्मिक अनुष्ठान किया जाता है, उसे गरल अनुष्ठान कहते हैं । 303. गुरु पारतंत्र्य :- गुरु की आज्ञा के अधीन रहना, उसे गुरु पारतंत्र्य कहा जाता है । 304. गजदंत पर्वत :- मेरुपर्वत की चारों दिशाओं में हाथीदाँत के आकारवाले सोमनस आदि चार पर्वत आये हुए हैं । 305. गृहस्थलिंग सिद्ध :- गृहस्थ के वेष में ही जो जीव वैराग्य से क्षपकश्रेणी पर चढ़कर घातिकर्मों का क्षयकर केवली बने हों, वे गृहस्थलिंग सिद्ध कहलाते हैं । 8 'घ' 306. घड़ी :- 24 मिनिट को एक घड़ी कहते हैं । दो घड़ी को एक मुहूर्त कहते हैं । 307. घनवात :- अत्यंत गाढ़ वायु ! जमे हुए बर्फ अथवा घी की तरह अत्यंत ही ठोस वायु । पहली नरक पृथ्वी के नीचे घनोदधि है, उसके नीचे घनवात और उसके नीचे तनुवात है और उसके नीचे आकाश है । For Private and Personal Use Only 29

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