________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
299. गोत्रकर्म :- आत्मा पर लगे आठ कर्मों में सातवाँ गोत्र कर्म है । इसके दो भेद हैं- उच्च गोत्र और नीच गोत्र ! उच्च गोत्र कर्म के उदय से जीव ऊँचे कुल में पैदा होता है और नीच गोत्र कर्म के उदय से जीव हल्के कुल में पैदा होता है ।
300. ग्रैवेयक :- 12 वैमानिक देवलोक के ऊपर नौ ग्रैवेयक देवलोक आए हुए हैं । ये सभी देव कल्पातीत कहलाते हैं | अभव्य की आत्मा उत्कृष्ट द्रव्य चारित्र के बल से अधिकतम नौवें ग्रैवयक तक उत्पन्न हो सकती है । गुप्ति :- मन, वचन और काया की असत् प्रवृत्ति का त्याग और सत्प्रवृत्ति के आचरण को गुप्ति कहते हैं । गुप्तियाँ तीन हैं- 1 ) मन गुप्ति 2) वचन गुप्ति और 3) कायगुप्ति ।
301.
302. गरल अनुष्ठान :- पर भव में सांसारिक सुख की प्राप्ति के संकल्प पूर्वक जो धार्मिक अनुष्ठान किया जाता है, उसे गरल अनुष्ठान कहते हैं ।
303. गुरु पारतंत्र्य :- गुरु की आज्ञा के अधीन रहना, उसे गुरु पारतंत्र्य कहा जाता है ।
304. गजदंत पर्वत :- मेरुपर्वत की चारों दिशाओं में हाथीदाँत के आकारवाले सोमनस आदि चार पर्वत आये हुए हैं ।
305. गृहस्थलिंग सिद्ध :- गृहस्थ के वेष में ही जो जीव वैराग्य से क्षपकश्रेणी पर चढ़कर घातिकर्मों का क्षयकर केवली बने हों, वे गृहस्थलिंग सिद्ध कहलाते हैं ।
8
'घ'
306. घड़ी :- 24 मिनिट को एक घड़ी कहते हैं । दो घड़ी को एक मुहूर्त कहते हैं ।
307. घनवात :- अत्यंत गाढ़ वायु ! जमे हुए बर्फ अथवा घी की तरह अत्यंत ही ठोस वायु । पहली नरक पृथ्वी के नीचे घनोदधि है, उसके नीचे घनवात और उसके नीचे तनुवात है और उसके नीचे आकाश है ।
For Private and Personal Use Only
29