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428. दृष्टिवाद :- गणधर रचित द्वादशांगी में बारहवें अंग का नाम दृष्टिवाद है, इसमें चौदह पूर्वों का समावेश हो जाता है ।
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429. दृष्टिविष सर्प :- जिस सांप की नजर में ही जहर हो, उसे दृष्टिविष कहते हैं | चंडकोशिक दृष्टिविष सर्प था ।
430. देवद्रव्य :- प्रभु प्रतिमा के समक्ष धरा हुआ द्रव्य तथा प्रभु के निमित्त से चढ़ावे आदि के द्वारा उत्पन्न हुआ द्रव्य देवद्रव्य कहलाता है । इस द्रव्य का उपयोग जिनमंदिर- जिनप्रतिमा के निर्माण, जीर्णोद्वार, तीर्थरक्षा आदि कार्यों में होता है ।
431. दक्षिणावर्त :- दाहिनी ओर के आवर्त को दक्षिणावर्त कहते है । 432. दावानल :- वन में चारों ओर से जो आग लगती हैं, उसे दावानल कहते है |
433. दुष्कर :- जो कार्य अत्यंत कठिनाई से होता हो, उसे दुष्कर कहते है ।
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434. देवानुप्रिय :- एक आदरवाची संबोधन । हे महानुभाव ! 435. देवानांप्रिय :- अनादर वाची संबोधन | हे मुर्ख ! 436. देहोत्सर्ग :- देह का त्याग, मृत्यु |
437. घुत :- जुआँ ।
438. द्वादशांगी :- बारह अंग । तीर्थंकर परमात्मा के मुख से तीन पदो का श्रवण कर बुद्धि निधान गण धर भगवंत द्वादशांगी सूत्रों की रचना करते है । समग्र जैन शास्त्र बारह अंगों (भागों) में विभाजित था ।
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439. धर्म :दुर्गति में गिर रही आत्मा को जो धारण करे, उसे धर्म
कहते हैं ।
440. धर्म चक्रवर्ती :- चक्रवर्ती, चक्ररत्न के द्वारा छह खंड पर विजय प्राप्त करता है । तीर्थंकर परमात्मा धर्म द्वारा चार गति का अंत लाते हैं, वे धर्म चक्रवर्ती कहलाते हैं ।
अतः
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