Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 62
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 495. निराहारी अवस्था :- जहाँ कभी भी आहार लेने की जरूरत नहीं हो, ऐसी आत्मा की मुक्तावस्था को निराहारी अवस्था कहते हैं । 496. निर्विभाज्य काल :- • केवली भगवंत की दृष्टि में भी जिस काल का अब विभाजन नहीं हो सकता हो, उस काल को निर्विभाज्य काल कहते हैं । 497. निर्जीव देह :- जिस देह में से जीव निकल गया हो उसे निर्जीव देह कहते हैं । 498. नीच गोत्र :- आठ प्रकार के कर्म में सातवें कर्म का नाम गोत्र कर्म है । इस कर्म के दो भेद हैं-ऊँच गोत्र और नीच गोत्र। जिस कर्म के उदय से जीव हल्के-निंदनीय कुल में पैदा होता है, वह नीच गोत्र कर्म कहलाता है । 499. नित्य पिंड :- साधु हमेशा एक ही घर से आहार ग्रहण करे तो वह नित्य पिंड कहलाता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 500. नवांगी पूजा :- नौ अंगों पर जो पूजा की जाती हैं, उसे नवांगी पूजा कहते है । 501. निर्वाण कल्याणक :- तीर्थंकर परमात्मा का पांचवां कल्याणक । निर्वाण अर्थात् मोक्ष | 502. निरतिचार चारित्र :- जिस चारित्र के पालन में लेश भी अतिचारदोष नहीं लगता हो, उसे निरतिचार चारित्र कहते है । 503. निरवद्य :- अवद्य अर्थात् पाप, निरवद्य अर्थात् पाप रहित । 504. निराकार :- जिसमें किसी प्रकार का आकार न हो, उसे निराकार कहते है । सिद्ध भगवंत निराकार परमात्मा है । आत्मा का शुद्ध स्वरुप निराकार है । कहते है । 50 505. निर्दयता :- जिस प्रवृत्ति में लेश भी दया की भावना न हो । 506. निष्कलंक :- जिसमें लेश भी कलंक, दाग न हो उसे निष्कलंक 507. नीचगोत्र :- गोत्र कर्म का एक चेद, जिस कर्म के उदय से जीवात्मा को नीच कुल की प्राप्ति होती है । For Private and Personal Use Only

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