Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 64
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 517. पद्मलेश्या :- छह प्रकार की लेश्याओं में 5 वीं लेश्या पद्मलेश्या कहलाती है। 518. परमाणु :- पुद्गल का छोटे से छोटा अंश, जिसका पुनः विभाजन नहीं हो सकता हो, उसे परमाणु कहते हैं । ____519. परमाधामी देव :- अधोलोक में रहनेवाले क्षुद्रवृत्तिवाले देवता, जो नरक के जीवों को भयंकर पीडा देते रहते हैं । वे अत्यंत अधार्मिक होते हैं । वे मरकर अंडगोलिक बनते हैं और फिर नारक बनकर नरक संबंधी वेदना सहन करते हैं। 520. पंच परमेष्ठी :- परम अर्थात् श्रेष्ठ । श्रेष्ठ पद पर रहे हुए होने के कारण परमेष्ठी कहलाते हैं । परमेष्ठी पाँच हैं-अरिहंत, सिद्ध, आचार्य उपाध्याय और साधु ! 521. परिग्रह :- बाह्य पदार्थों पर रही आसक्ति को परिग्रह कहते हैं । यह परिग्रह दो प्रकार का है - बाह्य और अभ्यंतर । बाह्य परिग्रह के 9 भेद हैं- 1) क्षेत्र 2) वास्तु (मकान आदि) 3) सोना 4) चांदी 5) रोकड़ धन 6) धान्य 7) द्विपद (नौकर आदि) 8) चतुष्पद (गाय ,बैल ,घोड़ा आदि) 9) गृह सामग्री ! अभ्यंतर परिग्रह के 14 भेद हैं- 1) हास्य 2) रति 3) अरति 4) भय 5) शोक 6) दुगुंछा 7) पुरुषवेद 8) स्त्रीवेद 9) नपुंसक वेद 10) क्रोध 11) मान 12) माया 13) लोभ 14) मिथ्यात्व । ___522. परिग्रह परिमाणव्रत :- 'इस व्रत द्वारा श्रावक धन, धान्य आदि 9 प्रकार के बाह्य परिग्रह का परिमाण निश्चित करता है अर्थात् अमुक प्रमाण से अधिक धन आदि मैं नहीं रखूगा । 523. परिग्रह संज्ञा :- धन आदि के प्रति रही आसक्ति को परिग्रह संज्ञा कहते हैं । यद्यपि यह संज्ञा सभी जीवों में न्यूनाधिक प्रमाण में पाई जाती है, फिर भी देवलोक में रहे देवताओं में यह संज्ञा अत्यधिक प्रमाण में होती है। 524. परिषह :- मोक्षमार्ग से विचलित नहीं होते हुए कर्मों को क्षय करने के लिए जो समतापूर्वक सहन किया जाता है, वे परिषह कहलाते हैं । भूख, प्यास आदि कुल 22 परिषह हैं । G52 For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102