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नहीं होती है । उदा - शालिभद्र ! यह पुण्य शक्कर पर बैठी हुई मक्खी की तरह है।
538. पापानुबंधी पुण्य :- जिस पुण्य के उदय से सांसारिक भोग सुख तो मिलते हैं, परंतु साथ में नवीन पाप करने की ही प्रवृत्ति होती है ।
कसाई आदि को प्राप्त धन संपत्ति पापानुबंधी पुण्य के उदयवाली है |
539. पुण्यानुबंधी पाप :- उदय पाप का हो परंतु पुण्य की प्रवृत्ति चालू हो, उसे पुण्यानुबंधी पाप कहते हैं । उदा. पूणियाश्रावक ! पाप के उदय के कारण उसके बाह्य जीवन में गरीबी थी । परन्तु उसमें भी सामायिक - समताभाव और साधर्मिक भक्ति की साधना के फलस्वरूप उत्कृष्ट पुण्य का ही बंध चल रहा था ।
540. पुण्योदय :- जिस कर्म के उदय से जीवात्मा को पाँच इन्द्रियों के अनुकूल सुख की साम्रगी प्राप्त होती है, उसे पुण्योदय कहते हैं ।
541. पापोदय :- जिस कर्म के उदय से जीवात्मा को पाँच इन्द्रियों के प्रतिकूल दुःख की साम्रगी प्राप्त होती है, उसे पापोदय कहते हैं ।
542. परिहार विशुद्धि :- सामायिक, उपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म संपराय और यथाख्यात - इन पाँच प्रकार के चारित्रों में परिहार विशुद्धि तीसरे नंबर का चारित्र है । इस चारित्र की आराधना के लिए समुदाय से अलग होकर तप आदि पूर्वक विशेष आराधना की जाती है।
___543. पंचेन्द्रिय जीव :- स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र रूप पाँचों इन्द्रियों को धारण करनेवाले जीव को पंचेन्द्रिय कहते हैं । मनुष्य , देव, नारक और तिर्यंच इन चारों गतियों में मनुष्य , देव और नारक तो नियम से पंचेन्द्रिय ही होते हैं, तिर्यंच में भी हाथी, घोड़े, गाय आदि पंचेन्द्रिय कहलाते हैं।
544. पंडित मरण :- समाधि भाव युक्त मरण को पंडित मरण कहते
545. पारिणामिकी बुद्धि :- उम्र अथवा अनुभव बढ़ने से जो बुद्धि विकसित होती है, उसे पारिणामिकी बुद्धि कहते हैं |
___546. पारिष्ठापनिका समिति :- साध्वाचार के पालन के लिए 1) ईर्यासमिति 2) भाषा समिति 3) ऐषणासमिति 4) आदानभंडमत्त निक्षेपणा समिति और
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